Book Title: Narbhavdrushtantopnaymala
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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________________ 170 : : नरभवदिटुंतोवनयमाला कर्तव्यने नही जाणतो अने कर्मना परिणामथी प्रेरायेलो मनुष्य पण शोक करे छे / / 3-4 // काऊणमणेगाई जम्मणमरणपरियट्टणसयाई / . दुक्खेण माणुसत्तं जह लहइ जहिच्छियं जीवो // 5 // भावार्थः-जन्म, जरा, मरण अने पर्यटनोना अनेक फेराओ करी जेम घणी मुश्केलीथी इच्छामुजब मनुष्यपणुं मेलवाय छे // 5 // तं तह दुल्लहलंभं विज्जुलयाचंचलं च मणअत्तं / लद्धण जो पमायइ सो काउरिसो न सप्पुरिसो // 6 // ____ भावार्थः-तेम विजलीना स्फुरणो (झबकारा) जेवं चंचल अने दुर्लभ मनुष्यपणुं पाम्याबाद जो तेने व्यर्थ गमावी देवामां आवे तो खरेखर ते प्राणी सत्पुरुष नथी किंतु कापुरुष (नीच) छे // 6 / / जिणवरजिणगणिगणहर-हरिचक्किबलाइपुरिसनामाणं / लाहो मणुअगइंमि तेणं चिय उत्तमा मणुआ // 7 // . भावार्थ:-तीर्थंकर, सामान्यकेवली, गणि, गणधर, इंद्र, चक्रवत्ति, बलदेव, वासुदेव विगेरे पदवीओनो लाभ मनुष्यगतिमांज थतो होवाथी मनुष्यगति उत्तमोत्तम कहेल छे / / 7 / / मणपज्जवनाणकेवल-दसणणाणं तहा अहक्खायं / .. आहारगाइलाहो तेणं चिअ उत्तमा मणुआ // 8 // .
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