Book Title: Narbhavdrushtantopnaymala
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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________________ 174 : : नरभवदिटुंतोवनयमाला प्रकरणरूप श्रेष्ठ क्षेत्रमाथी उच्छु (सेलडो) नी वृत्तिनी पेठे शोधनबुद्धिथी मेलवी में ( नयविमलगणिए ) अहिं लख्युं छे // 18 // जं किंचि दोसदुटु हुज्जा इह बालविलसियं जम्हा / .. गुरुजणगीयत्थेहिं विसोहियध्वं खु तं सव्वं // 19 // भावार्थ:-बालचेष्टा होवाथी जे कांइपण दूषण आववा पाम्युं होय ते संघलं गुरुजन अने गीतार्थोए शोधी लेवें // 19 // गोयत्थपरिग्गहियं पयासमायाइ दुट्ठमविसिट्ठ / संपुण्णचंदगहिी ससओवि जणे पयासकरो / / 20 // भावार्थ:-गमे तेवू दोषयुक्त ने नालायक होय पण जो ते प्रकरण गीतार्थोवडे स्वीकाराय तो अवश्य विशेष प्रकाश पामे छे, केमके पूर्णचंद्रथी स्वीकारायेल ससलो पण लोकोने प्रकाश आपनारो थाय छे / 20 / एए दस दिट्ठता उवणयजुत्ता मए विणिद्दिट्ठा / . नरभवलट्ठाए लिहिया पवयणसमुद्दाओ // 21 // भावार्थ:-आ उपनययुक्त दश दृष्टान्तो प्रवचनसमुद्रमांथी लइ मनुष्यभवनी प्राप्तिनी दुर्लभता बतावी तेने प्राप्त करवानी समज आपवा अर्थे अहिं में (नयविमलगणिए) निर्देशेल [देखाडेल] छ / 21 / सिरितवगणरयणाकर-तरंगसंपुण्णचंदसारिच्छो / सुविहियमुणिजणचूडा-मणिभूओ भुवणजणपणओ // 22 //
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