Book Title: Narbhavdrushtantopnaymala
Author(s): Jinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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________________ 164 : : नरभवदिटुंतोवनयमाला मनुष्यपणानी दुर्लभता उपर बस छे // 24 // अत्रोपनययोजना यथा अहीया दृष्टान्त घटावे छे, जेमजह सेा जंबूढ़ीवो तह जिणपण्णत्तधम्मसासणओ। जह मंदरगिरिचूला तह धम्मासेवणा जाण // 25 // भावार्थ:-जंबूद्वीपसमान जिनप्रणीतधर्म अने मेरुपर्वतनी चूलिका समान धर्मसेवना जाणवी // 25 // जह देवो तह भव्वत्त-परिणामो सुंदरो मुणेअव्वो / थंभुव सुसम्मत्तं अणेगगुणाणूहिं पडिपुण्णं // 26 // भावार्थ:-देव समान सुंदर भव्यत्वपरिणाम जाणवू अने स्तंभ जेवं सम्यक्त्व. ते अनेक गुणरूपं परमाणुओथी परिपूर्ण भरेलं जाणवू // 26 // उम्मग्गवयणघरट्ट-पट्टेहिं पोसिओ तहा थंभो / संका नलिया जं तंमि जोइज्जा तत्थ कइयावि // 27 // विगहाकसायअइखर -पवणपयारेहि सणक्खंभो / पइअणुयं तह पिट्ठो जहा पुणो होउं दुस्सक्का / / 28 / / भावार्थः-उन्मार्गवचनरूप घरट्टपाषाणथी ते थांभलाने पीशी नांख्यो, अने शंकारूप नलीमां भरी फेंकेला क्यारेक विकथाप्रमादरूप अतिप्रचंड पवनना झपाटाथी विखराइ गयेला दर्शनस्तंभना परमाणुओ
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