Book Title: Munisuvratasvamicarita
Author(s): Chandrasuri, Rupendrakumar Pagariya, Yajneshwar S Shastri, R S Betai
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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चतुर्थ भव--- सनत्कुमार कल्प में देव के रूप में उत्पत्ति पंचम तथा षष्ठ भववज्रकुण्डल तथा ब्रह्मदेवलोक में देव भव
जम्बुद्वीप के अपरविदेह में गंधावती विजय में सौगन्धिक नाम का प्रसिद्ध देश है। उस देश में धन धान्य से समृद्ध गंधमादन नाम का नगर है। वहाँ वज्रनाभि नामका चक्रवर्ती राजा राज्य करता था। उसकी सुभावती नाम की पट्टरानी थी। एक दिन रानी सुख शय्या पर सोई हुई थी। उसने स्वप्न में इन्द्र को वज्रकुंडल समर्पित करते हए देखा। स्वप्न देखकर महारानी जागृत हुई। वह पति के पास पहुंची और उसने अपने स्वप्न का सारा वत्तान्त उसे कहा । स्वप्न सुन कर राजा ने कहा-देवी! तुमने सुन्दर और शुभ स्वप्न देखा है। तुम सुन्दर एवं तेजस्वी पुत्र रत्न को जन्म दोगी। रानी ने अपने स्वप्न को सफल बनाने के लिए शेष रात्री धर्म चिन्तन में व्यतीत की।
इधर सनत्कुमार नामक स्वर्ग से कुबेरदत्त राजा का जीव देवलोक का सुखमय जीवन व्यतीत कर आयष्य के पूर्ण होने पर वहां से च्युत होकर सुभावती के गर्भ में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ । गर्भकाल के पूर्ण होने पर रानी ने तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया । स्वप्न के अनुसार बालक का नाम वज्रकुंडल रखा । वज्रकुंडल ने अल्प समय में ही समस्त कलाओं में कुशलता प्राप्त कर ली । वज्रकुंडल युवा हुआ । उसका ५०० सुन्दर राजकुमारियों के साथ विवाह हुआ । चक्रवर्ती वजनाभि ने उसे युवराज पद पर अधिष्ठित किया ।
___ एक दिन वज्रकुण्डल अपने मित्रों के साथ वार्तालाप कर रहा था । इतने में प्रतिहारक ने आकर कहायुवराज! एक परदेशी युवक आपका दर्शन करना चाहता है । राजकुमार ने उसे अपने पास बुलाया । युवक राजकुमार को वन्दन कर उसके द्वारा बताये गये आसन पर बैठ गया । वज्रकुण्डल ने पूछा- युवक ! आप कौन हो? कहां से आये हो? और क्रिस प्रयोजन से आये हो? उत्तर में आगन्तुक यवक ने कहा- यवराज नाम वीरसेन है। मैं सुसेन नगर के राजा सिन्धवीर का पूत्र हैं। मेरे पिता ने पद्मश्री नामकी सन्टर राजकमा के साथ विवाह किया । कालान्तर में पद्मश्री ने सिन्धुसेन नामक पुत्र को जन्म दिया । पुत्र के यवा होने पर पद्मश्री अपने पुत्र को ही राज्य का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी इसके लिए वह अपने पति को बार-बार प्रेरणा देती रहती थी। जब वह अपने कार्य में असफल हुई तो उसने सोचा- जब तक वीरसेन यहां रहेगा, तब तक मेरे पुत्र को राज्य का मिलना असंभव है अतः इसे किसी तरह से यहां से हठाना चाहिए। यह विरूद्ध बड़ा षड़यंत्र रचा । उसका षड़यंत्र सफल रहा । मेरे पिता ने मुझे से नाराज होकर मझे अपने देश से निष्कासित कर दिया । पिता से निष्कासित हो मैं अनेक देश देशान्तर में परिभ्रमण करता हआ आपने पास आया हूँ। आप मुझे अपना मित्र बनालें, मैं आपके चरणों में रहकर जिन्दगी के शेष दिन बीताना चाहता हूँ । वज्रकण्डल वीरसेन की बातों से बड़ा प्रभावित हआ । उसने उसे अपना मित्र बना लिया । युवराज ने उसके निवास-भोजनादि की पूरी व्यवस्था कर दी । वह सुखपूर्वक रहने लगा।
एक दिन कुसुमपुर से एका व्यक्ति आया और राजकुमार वीरसेन से बोला - राजकुमार ! मुझे कुसुमपुर नगर के श्रेष्ठी प्रियमित्र श्रावक ने आपके पास भेजा है और कहलवाया है कि आपने जिनमन्दिर के लिए विशाल जमीन दी थी उस पर मैंने विशाल जिन मन्दिर का निर्माण किया । किन्तु द्वेषवश आपका सौतेला भाई सिन्धसेन नगर एवं जिन मन्दिर को ध्वस्त करना चाहता है । आप शीघ्र ही आकर जिन मन्दिर एवं हमारी रक्षा करें। विलंब न करें ।" यह सुनकर वीरसेन सिन्धुसेन की दुष्टता पर बड़ा क्रुद्ध हुआ । वह चक्रवर्ती की तथा युवराज वज्रकूण्डल की सहायता से विशाल सेना के साथ कुसुमपुर पहँचा । वीरसेन की एवं वज्रकुण्डल की सेना के सामने सिन्धसेन टिक नहीं सका । अवसर देखक र सिन्धुसेन ने शरणागति स्वीकार करली । वीरसेन ने सिन्धसेन के सभी अपराध माफ कर दिये । दोनों में मैत्री हो गई।
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