Book Title: Munisuvratasvamicarita
Author(s): Chandrasuri, Rupendrakumar Pagariya, Yajneshwar S Shastri, R S Betai
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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जोपवित किया गया। तम द्विज कर्म के अनुसार संध्या, वन्दन आदि कार्य करने लगे। अग्निशर्मा नामक तम्हारा एक छोटा भाई था। तुम उम्र में बड़े थे अत: घर का सारा काम तुम्हें ही करना पड़ता था। अग्निशर्मा छोटा था और पिता का स्नेह भी उस पर अधिक था अतः वह गृहकार्य की जिम्मेदारी से मक्त होकर स्वच्छन्द विचरण करता था। उसे स्वच्छन्द विचरता देख तुझे अपने छोटे भाई पर ईर्षा होने लगी। भाई की स्वच्छन्द वत्ति तझे अखरी। तम पिता से भाई की स्वच्छन्द वृत्ति की बार बार शिकायत करते किन्तु पिताजी तुम्हारी बात पर जरा भी ध्यान नहीं देते थे। क्रोध में आकर एकदिन तुमने अपने भाई पर झूठा दोषारोपन किया। पिता ने तम्हारी बात को सच मान लिया और उसे घर से निकाल दिया। इसी पाप प्रवत्ति के कारण तमने तीन अशा कर्म का बन्ध किया। कुछ वर्ष के बाद तुम अपने कुटुम्ब के साथ किसी उत्सव के प्रसंग पर एक ब्राह्मण के घर भोजनार्थ गये। वहाँ तुमने स्निग्ध तथा मधुर पदार्थों का अधिक मात्रा में सेवन किया। अधिक खा लेने से तुम्हें विशचिका-अतिसार हो गया। बहत प्रकार की चिकित्सा करने पर भी तुम नहीं बच सके। अकाल में ही तम्हारी मत्य हो गई। तुम मर कर इसी नगर के राजपुरोहित के घर पुत्र रूप से जन्मे। तुमने पूर्वजन्म में अपने लघभ्राता के प्रति जो द्वेष किया था उसी के फलस्वरूप यहाँ तुम्हें अपने पिता से द्वेष मिल रहा है। यह सनकर शिवकेतु मनि के द्वारा सुनाई गई घटना का विचार करने लगा। विचार करते करते शिवकेतु को जाति स्मरण ज्ञान हो आया। जाति स्मरण ज्ञान में मुनि के द्वारा बताई गई घटना को सच पाया। उसे मनि के ज्ञान के प्रति पुरी श्रद्धा हो गई। उसने मनि से कहा-भगवन् ! आपने जो कुछ भी कहा वह सब यथार्थ है। मैंने पूर्व जन्म में जा पाप किया है उससे मैं मुक्त होना चाहता हूँ । क्या इस पाप से सर्वथा मुक्त होने को कोई उपाय है? मनि ने कहा-इस पाप से सर्वथा मुक्त होने का उपाय तो मुनि दीक्षा ही है। शिवकेतु ने पुनः पूछा-भगवन् ! प्रव्रज्या का स्वरूप समझाईए। मुनि ने प्रव्रज्या का स्वरूप और साधु का आचार समझाया । शिवकेतु ने कहा-यह प्रव्रज्या बड़ी अच्छी है। आपने इस युवावस्था में यह कठिन व्रत क्यों ग्रहण किया? उत्तर में मनि ने अपनी पूर्वावस्था का
। सुनाया। मुनि का वृत्तान्त सुनकर वह बड़ा प्रभावित हुआ। उसका वैराग्य भाव तीव्र हो गया। उसने कहाभगवन ! मैं आपके पास दीक्षा लेना चाहता हूँ। मुझे आप इसी समय प्रबजित करें। मुनि ने कहा-शिवकेतु ! तुम अभी बालक हो तुम्हारे माता-पिता की आज्ञा के बिना हम तुम्हें प्रवजित नहीं कर सकते । तुम अपने माता पिता के पास जाकर उनसे आज्ञा ले आवो। गुरु की आज्ञा लेकर वह अपने माता पिता के पास पहुँचा और जैन मनि बनने की आज्ञा मांगने लगा। पिता ने कहा-मैं नास्तिक श्वेतपटी के पास दीक्षा लेने की आज्ञा नहीं दंगा। शिवकेत ने पिता से कहा-जब तक आप मझे आज्ञा नहीं देंगे तब तक मेरा अन्न-जल ग्रहण का त्याग है। पिता-पुत्र के बीच बडी दार्शनिक चर्चा हैई। पुत्र की तर्क पूर्ण दलिलों का पिता पर बड़ा प्रभाव पड़ा। आज्ञा प्रदान की। शिवकेतु ने पारणा किया। शिवकेतु अपने पिता के साथ मुनि के पास पहँचा। विश्वभति ने मनि से धार्मिक चर्चा की। मुनि ने जैनधर्म के मुख्य तत्व जीवादि पदार्थों का सुन्दर रूप से निरूपण किया। तथा साधु का आचार समझाया । विश्वभूति ने मुनि से श्रावक व्रत ग्रहण किये। शिवकेतू ने पिता की आज्ञा प्राप्त कर दीक्षा ग्रहण की। गरु के समीप रहकर शिवकेतु ने जैन शास्त्रों का अध्ययन किया। मुनि के आचार का कठोरता के साथ पालन करते हए वे दुष्करतप करने लगे। अन्त में सात दिन का अनशन कर समाधिपूर्वक स्वर्गवासी हुए । द्वितीय भव--
___ कठोर तप के कारण शिवकेतु मरकर सौधर्म देवलोक में महद्धिक देव बना। तृतीय भव कुबेरदत्त-- . सौधर्म देवलोक मे चवकर शिवकेतु का जीव पुष्कलावती विजय के विश्वपुर नगर के राजा विश्वकान्त की रानी विश्वकान्ता के उदर में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। विश्वकान्ता देवी कुबेर यक्ष की उपासिका थी। नौ महिने
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