Book Title: Munisuvratasvamicarita
Author(s): Chandrasuri, Rupendrakumar Pagariya, Yajneshwar S Shastri, R S Betai
Publisher: L D Indology Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ जीवन के अन्तिम समय में सात दिन का अनशन कर वे समाधिपूर्वक स्वर्गवासी हुए। उनके श्री विजयसिंह सुरि, श्रीचन्द्रसूरि एवं विबधचन्द्र सूरि ऐसे तीन प्रतिभा सम्पन्न विद्वान शिष्य थे। उन्हीं में प्रस्तुत मुनिसुवत चरित्र के कर्ता आचार्य श्रीचन्द्रसूरि हैं । आचार्य श्रीचन्द्रसूरि गहस्थावस्था में महाराजा सिद्धराज जयसिह के अधीनस्थ लाट देश के अर्थमंत्री थे । आ.मल्लधारी हेमचन्द्र सूरि के उपदेश से इन्होंने विशाल वैभव, परिवार एवं मंत्रीपद का त्याग कर दीक्षा ग्रहण की । अपने विद्वान गरु के सान्निध्य में रहकर इन्होंने संस्कृत, प्राकृत एवं आगम ग्रन्थों का अध्ययन किया और ये उच्चकोटि के विद्वान बन गये।* 2 ने इन्ह आचार्य पद पर प्रतिष्टित किया । एक बार आचार्य श्री विहार करते हुए अपने शिष्य परिवार के साथ धवलक्क (धोलका) नगर में पधारे । वहाँ भरुयच्छ्य (भृगुकच्छ) नाम का विशाल मंडप से सुशोभित जिन मन्दिर था। उस मन्दिर में भगवान् मुनिसुव्रत की विशाल नयनरम्य प्रतिमा थी। उसी नगर में गण से समद्ध धवल नाम का श्रेष्ठी रहता था। धवल श्रेष्ठी ने तथा स्थानीय संघ ने आचार्य श्री का दर्शन कर प्रार्थना की कि आप भ. मुनिसुग्रत का चरित्र बनाओ। संघ और संघपति की प्रार्थना को आचार्य श्री ने स्वीकार किया। चरित्र रचने की भावना से आचार्य श्री ने वहाँ से विहार कर दिया वे आशावल (अहमदाबाद) पधारे। वहाँ श्रीमाल ज्ञाति के श्रेष्ठी नागिल श्रावक के पुत्र निवास करते थे। उन्हीं की वसति अंबहरिभण्डशाला में आचार्य श्री ठहरे। इसी वसति में रहकर आ. श्रीचन्द्रसूरि ने मुनिसुव्रत्त स्वामी का चरित्र बनाना प्रारंभ किया। सं. ११९३ में आसोवदि अमावस्या-दीपमालिका के दिन इसे पूरा किया। इस ग्रन्थ के प्रथमादर्श लिखने में आ. श्री के गुरु भ्राता विबुधचन्द्र सूरि ने एवं श्रेष्ठी अंबहर और उसके छोटे भाई जसराज ने बड़ी सहायता की। द्विज श्रेष्ठ केशव के पुत्र देवराज ने इस ग्रन्भ का प्रथमादर्श लिखा। मुनिसुव्रत स्वामी चरित्र के अतिरिक्त आ. श्रीचन्द्रसूरि ने संग्रहणी सूत्र, एवं लघुक्षेत्रसमास नामक ग्रन्थ की भी रचना की है। कथावस्तु ग्रन्थकर्ता प्रारम्भ में परमपुरुष, इस अवसर्पिणीकाल में समस्त नयधर्म को प्रकट करने वाले, चतुरानन, अज्ञानरूप अन्धकार को दूर करने वाले भगवान ऋषभदेव को वन्दन कर मेरु पर्वत को हिलाने वाले उग्र उपसर्गों के समूह को लीला से सहन करने वाले अन्तिम तीर्थकर वीर जिनेश्वर को प्रणाम करते हैं। बाद में अपनी शुभ देशना से अमत का सिंचन करने वाले तथा मिथ्यात्वरूप महाविष से मच्छित जीवों को विवेक रूप चेतना देने वाले मुनिसुव्रत भगवान् को वन्दन करते हैं। तत्पश्चात् अन्तमुहर्त में ही पदार्थ के परमार्थ को प्रकट करने में समर्थ प्रथम गणधर इन्द्रभूति के चरणों में प्रणामकर जिनके धर्म को आज भी आचार्यगण प्रकाशित कर रहे हैं ऐसे गणधर सुधर्मा स्वामी एवं केवलज्ञानी जम्बु मुनीन्द्र को वन्दन करते हैं। तदनन्तर सरस्वती देवी की स्तुति करते हुए ग्रन्थकर्ता कहते हैं-कुन्दपुष्प तथा चन्द्रजैसी उज्ज्वल-वर्णा, जिनेश्वर के मुख से निसत सरस्वती देवी हा मुख में निवास करे। साथ ही विमल दर्शन को धारण करने वाले अत्यन्त दर्शनीय देहवाले मेरे गुरु जिनके नाम स्मरण करने से आज भी भक्त के इच्छित कार्य सिद्ध होते हैं, उनका स्मरण करता हूँ। साथ ही श्रमणसंघ में कई कवीश्वर गुरुजन विराजमान है फिर भी गुरुदेव ने मुझे ही भगवान् मुनिसुव्रत के चरित्र की रचना का आदेश दिया है। शास्त्र के परमार्थ से अविदित होते हुए भी गुरु के आदेश रूप कृपा को सहर्ष शिरोधार्य कर मैं इस चरित्र की रचना प्रारंभ कर रहा हूँ । यद्यपि इस गुस्तर कार्य के लिए मैं अयोग्य हैं फिर भी संघ के प्रभाव एवं उनके आदेश मे मैं इस चरित्र की रचना करने का साहस कर रहा हैं। * ज.प.इ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 ... 376