Book Title: Munisuvratasvamicarita
Author(s): Chandrasuri, Rupendrakumar Pagariya, Yajneshwar S Shastri, R S Betai
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 17
________________ ८ तत्पश्चात् कवि कहता है- मैं सज्जन और दुर्जन के स्वभाव का वर्णन नहीं करना चाहता क्योंकि दोनों के स्वभाव ही एक दूसरे से विपरीत होते हैं अतः उनका वर्णन करना ही निरर्थक है। सुकवि के काव्य में दोष न होने पर भी दोष को ही देखने की दृष्टि वाले दुर्जन होते हैं क्योंकि दुर्जनों का स्वभाव ही ऐसा होता है। इससे विपरीत सज्जनजन गुणरहित काव्य में भी गुणों कों ही खोज करते हैं क्योंकि सज्जन स्वभाव से ही सरल और गुणों से परिपूरित होते हैं। यदि किसी स्थल पर पदार्थ है उसे 'है' ऐसा कहना तो उचित है किन्तु दुर्जन तो हरिण की तरह होते हैं जैसे हरिण मरुस्थल में जल नहीं होते हुए भी जल को ही देखते रहते हैं वैसे ही दोष नहीं होते हुए भी दोष देखना तो दुर्जन का स्वभाव ही है । सज्जन और दुर्जन दोनों ही अपने अपने स्वभाव का त्याग नहीं करते अतः इस विषयक चर्चा करना निरर्थक है। इतना कहकर ग्रन्थकार कथा का प्रारम्भ करते हैं । प्रस्तुत मुनिसुव्रतस्वामी का चरित्र न भवों में विभक्त है। भगवान् मुनिसुव्रत का प्रथम व शिवकेतु का, द्वितीय भाव सौधर्म कल्प में देवरूप से उत्पत्ति, तृतीयभव कुबेरदत्त का चतुर्थ भाव में सनत्कुमार देवलोक में जन्म, पंचम भाव वज्रकुंडल का पष्ठ भव में ब्रह्मदेवलोक में उत्पत्ति सप्तम भाव में श्रीमंनृप और आठवें भाव में प्रकल्प में जन्म एवं नौवे भव में भ. मुनिसुव्रत के रूप में जन्म ।' प्रथम भव शिवकेतु- ऐरावत क्षेत्र में मायंदी नामकी सुन्दर एवं धनधान्य से समृद्ध नगरी थी वहाँ मणिमाली नाम का परा क्रमी एवं कुबेर के समान समृद्ध राजा निवास करता था। उसकी मणिकंता नाम की रानी थी वह रूप और गुणों से युक्त थी। उस राजा का विश्वभूति नामका पुरोहित या उस पुरोहित की पत्नी का नाम विश्वदत्ता था। कालान्तर में विश्वदत्ता ने एक सुन्दर सुपुत्र को जन्म दिया। उसका नाम शिवकेतु रखा गया यह बड़ा बुद्धिमान था। शिवकेतु जब पढ़ने योग्य हुआ तो उसे स्थानीय पाठशाला में वेदाध्ययन के लिए रखा । वह विनयवान था और पिता की सेवा भी करता था फिर भी उसके पिता उससे द्वेष रखते थे । पिताजी की द्वेष बुद्धि एवं उपेक्षा वृत्ति से शिवकेतु बड़ा दुःखी रहता था। एक बार शिव अपने सहपाठी छात्रों के साथ कीड़ा हेतु नगरी के बाहर उद्यान में पहुंचा। वहां एक वृक्ष की शीतल छाया के नीचे एक चारणमुनि को मधुर स्वरों में स्वाध्याय करते हुए देखा मुनि के मुख से निकलते हुए मधुर स्वरों को सुनकर एवं प्रभावशाली तेजस्वी मुखाकृति को देखकर शिवकेतु बड़ा प्रभावित हुआ । अन्य छात्रगण मुनि को देखकर बड़े क्रुद्ध हुए और मुनि को मारने के लिए उनके सामने दौड़े। शिवकेतु ने बड़ी मुष्किल से छात्रों को रोका और उन्हें शपथ देकर वापस लौटा दिया। शिवकेतु के कहने पर सभी छात्र चले गये। शिव के पास पहुँचा और वदन कर उनके समीप बैठ गया। नम्रभाव से उसने मुनि से पूछा - "भगवन् ! आप मधुर स्वरों में क्या गा रहे हो ? आपके ये शब्द बड़े अलौकिक लगते हैं पशु को भी मानव बनाने का सामर्थ्य रखते हैं। क्या कोई व्यक्ति अपने ज्ञान बल से इन्द्रियातीत ऐसे भूत, भविष्य की बात को भी जान सकता है ? मुनि ने कहा- शिवकेतु ! ज्ञानी अवश्य ही भूत भविष्य को जानता है और अतीत अनागत कालीन पदार्थ का वर्णन कर सकता है। शिवकेतु ने कहा- यदि ऐसा ही है तो भगवन् ! मैं अपनी पिता की सेवा और विनय दोनों करता हूँ फिर भी मेरे पिताजी मेरे पर अकारण ही द्वेषभाव रखते हैं मैंने पूर्वजन्म में ऐसा कौनसा पाप किया है जिससे वे मुझसे द्वेष करते हैं ? मुनि ने कहा - "शिवकेतु! यह पूर्वोपाजित कर्मों का ही फल है। मैं तुम्हें तुम्हारे पूर्व जन्म का वृत्तान्त मुनाता हैं । तुम ध्यान से सुनो।" इसी नगर में आयन्म दरिद्र वर्मा नामक ब्राह्मण रहता था। उसकी शिवसोमा नामकी पत्नी थी। उसी के घर तुमने शमं नामक पुत्र के रूप में जन्म लिया था जब तुम आठ बरस के हुए तब तुम्हारा मुजीबन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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