Book Title: Mokshshastra
Author(s): Chhotelal Pandit
Publisher: Jain Bharti Bhavan

View full book text
Previous | Next

Page 30
________________ भाषा छंद सहित । ॥ ४ ॥ रूपिणः पुद्गलाः ॥ ५ ॥ आ आकाशादेकद्रव्याणि ॥ ६ ॥ निष्क्रियाणि च ॥ ७ ॥ असङ्घयेयाः प्रदेशा धर्म्मामैकजीवानाम् ||८|| आकाशस्यानन्ताः ॥९॥ सङ्ख्येयासङ्ख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥ १० ॥ नाणोः ॥ ११॥ लोकाकाशेऽवगाहः ॥ १२ ॥ धर्म्माधर्म्मयोः कृत्स्ने ॥१३॥ एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ॥ १४ ॥ असङ्खयेयभागादिषु जीवानाम् ॥ १५ ॥ प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां निय सुसात जान इन्हें अरु मान अरूपी पुल रूपीं । धर्म अधर्म अकाश ये तीनो रहित किया इक क्षेत्र निरूपी ॥ १ ॥ चौपाई। २७ धर्म अधर्म असंख्य प्रदेश । यही जीवके जान प्रदेश । अनंत प्रदेश अकाश स्वतंत्र | पुदंगल संख्य असंख्य अनंत ॥२॥ फेरि भोग जाको नहि होय । नाम प्रदेश बतायो सोय || लोके अकाशवि है वाश । द्रव्यनको जानो सुखराश ॥ ३॥ धर्म अधर्म द्रव्य परदेश | व्यापत लोकाकाश भनेश || लोककाश प्रदेशन मांय । पुदगल द्रव्य प्रदेश वसांय || ४ || तासु असंख्य भागमैं जान । जीवनको अवगाह प्रमान ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70