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भाषा छंद सहित।
विंशतिर्नामगोत्रयोः ॥१६॥ त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥ १७ ॥ अपरा द्वादशमुहूर्तावेदनीयस्य ॥ १८ ॥ नामगोत्रयोरष्टौ ॥ १९ ॥ शेषाणामन्तर्मुहूर्ता ॥ २०॥ विपाकोऽनुभवः ॥ २१ ॥ स यथानाम ॥ २२ ॥ ततश्च निर्जरा ॥ २३ ॥ नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्र
सोरठा।
कोडा कोडी वीस, नाम गोत्र इस्थिति कही। आयुकर्म तेतीस, थिति उत्कृष्टी जानियो ॥ २२ ॥
सबैय्या। . जर्धन्य थितीहै बार मुहूरत, वेदनिकर्म कही श्रुतमाहीं । भौम रु गोत्रकी आठ मुहूरत, शेषेकी अन्त मुहूर्त कहाई॥ कर्मउदय सविपाक कहो, सोई अनुभव नामको भावबतायो। यथानाम विधि अनुभव सोई, सोई फल श्रुतमें इमि गायो॥२३॥ जामउदयको भोग भयो, इक देश ता कर्मको नाश कहायो। सेव कर्म प्रकृतिको कारण है, सब काल सबर्गी योग बतायो । मनबचनकायके योग विशेषत, सूक्षम कर्म प्रदेश घनेरे । आत्मप्रदेश अकाश विषै, हुयइस्थिति जान सु नेम यह रे॥२४॥