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नमः सिद्धेभ्यः । श्रीमदुमास्वामिआचार्य कृत.
» मोक्षशास्त्र. भर पंडित छोटेलाल कृत भाषा छंद सहित
जिसको मालिक श्रीजैनभारतीभवन ने चंद्रप्रभाप्रेस बनारसमें छपवाकर .. प्रकाशित किया।
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वीरनिर्वाण सम्वत् २४३९
सन् १९१२ ईखी.
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49
प्रथमबार ]
[ न्यो ।
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GC एक्ट २५ सन् १८६७ के अनुसार राजस्टरा कराक सब हक प्रकाशक ने स्वाधीन क्खाहै
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प्रस्तावना।
प्रिय पाठको! यह तत्त्वार्थसूत्र आपका चिरपरिचित ग्रंथ है इसके पाठ मात्र ही से एक उपवासका फल होता है । इसी कारण हमारी जैनसमाजमें प्रायः आबाल-वृद्ध सभी इसका नित्यपाठ करते हैं खूबी यह है कि इसमें श्रीमन् आचार्य उमास्वामी ने 'गागरिमें सागरकी' उपमाको चरितार्थ किया है अर्थात् जैनागमरूप समुद्रको मथनकर अनेक शब्दरूपी रत्नों में से सार २ मणि चुनकर इसे मालाकार (सूत्राकार) बनाया है जैनियों में यह सर्वोत्तम ग्रंथ माना जाता है यद्यपि इन सूत्रोंपर संस्कृत भाष्य, राजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, इत्यादि अनेक टीकार्य प्राप्त हैं परन्तु वे सब संस्कृत जाने बिना समझमें नहीं आती भाषामें भी कई विद्वानों ने विस्तार पूर्वक इनका अर्थ बताया है परंतु विस्तार तथा वचनिका मय होने से वे सब नित्यक्रिया में उपयोगी नहीं होती इसी त्रुटिकी पूर्ति करने के लिये पंडितछोटेलालजीने इसी काशीमें सम्बत् १९३२ में श्रीमान बाबू उदयराजजी तथा कविवर वृन्दाबनदासजीके सुपुत्र बाबू शिखरचंद्रजीकी सहायता लेकर भापा छंदोंमें रचना की और तत्त्वार्थ सूत्रोंका मर्म इस बुद्धिमानी से छन्दोंमें भरा है कि मूलसूत्रोंका आशय अंशमात्र भी नहीं छूटने पाया । हमें विश्वास होता है कि साधारण हिंदी जाननेवाले भी इससे लाभ उठाकर इसे सर्वोपयोगी समझ प्रसन्न होकर नित्यपाठ करेंगे और इसका प्रचार बढ़ावेंगे। विशेषु किमधिकम् ।
प्रकाशक मालिक-श्रीजैनभारतीभवन।
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ॐ
नमः सिद्धेभ्यः । अथ
आचार्यश्रीमदुमास्वामिविरचितम् मोक्षशास्त्रम् ।
अपरनाम
( तत्त्वार्थ सूत्रम् )
त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्कायलेश्याः पंचान्ये चास्तिकाया व्रतसमितिगतिर्ज्ञानचारित्रभेदाः । इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितैः प्रोक्तमर्हद्भिरीशैः प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् यः स वै शुद्धदृष्टिः ॥ १ ॥
तत्वार्थसूत्रकी भाषाछंद ।
छप्पय ।
• तीनकाल षटद्रव्य पदारथ नब सरधानो । जीबकाय पट जान लेश्या षट ही मानो || अस्तिकाय हैं पांच और व्रत समति सुगत हैं । ज्ञान और चारित्र इते श्रुत मोक्ष कहत हैं
||
* यह श्लोक न तो मूल तत्त्वार्थसूत्रका है न उसकी किसी टीकाका हे और न इस. श्लोक के साथ तत्वार्थ सूत्रका कोई संबंध हूं इसलिये तत्त्वार्थसूत्र के पाठ में इसे शामिल करना नितांत अनुचित है | लाला छोटेलालजीने इसका छप्पय बनाया है इसलिये पाठकों को मिलान करनेकेलिये महीन टाइपमें दे दिया है।
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तत्त्वार्यसूत्र+मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृतां ।
ज्ञातारं विश्वतत्वानां बंदे तद्गुणलब्धये ॥ २ ॥ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ १॥ तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥२॥ तन्निसर्गादधिगमादा ॥३॥ जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्वम् ॥४॥ नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः ॥ ५॥
तीन भुअनमें महत पुनि अरहत ईश्वर जानियों । ये प्रशस्त पुनि मान्य हैं शुद्धदृष्टि पहिचानियों ॥१॥
छन्द विजया।
+मोक्षकी राह बतावत जे अरु कर्म पहाड़ करै चकचूरा । विश्व सुतत्त्वके ज्ञायक हैं ताहि लब्धिके हेत नमो परपूरा ॥ सम्यक्दरशन ज्ञानचन्त्रि कहे एही मारग मोक्षके सूरा । तत्त्वके अर्थ करो सरधान सु सम्यकदरशन नाम जहूरा ॥२॥ होते स्वभाव निसर्गज सम्यक गुरुउपदेश सु अधिगम ताई। जीवे अजीव रु आस्रव बंध सु संबर निर्जर मोक्ष जताई ॥ जेई हैं तत्त्व सुतत्त्व भले इनकी संख्या श्रुत सात कहाई । नामस्थापन द्रव्य सुभावतें तत्त्व सु संभवता सु लहाई ॥३॥ ___+ यह श्लोक सर्वार्थसिद्धिका मंगलाचरण है ।
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भाषा छंद सहित। प्रमाणनयैरधिगमः ॥६॥ निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ॥ ७॥ सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ॥ ८॥ मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् ॥ ९॥ तत्प्रमाणे ॥१०॥ आद्ये परोक्षम् ॥ ११॥ प्रत्यक्षमन्यत् ॥ १२॥ मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनान्तरम् ॥१३॥ तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ॥ १४॥ अवग्रहेहाज्वायधारणाः ॥१५॥ नय परिमाणके भेद सुजानत औरहु कारण जान सुजानो। निरदेश स्वामित साधन जान अधार रु इस्थिति भेद विधानो॥ संत संख्या छिति परसन काल रु अंतर भाव अल्प बहु मानो। मेति श्रुति अवधि ज्ञान मनपरजय केवलज्ञान सु पांच बखानो४ ऍही प्रमाण कहे श्रुतमें पहिले दो ज्ञान परोक्ष बताए । शेषे प्रतक्ष सु तीन रहे मैतिज्ञानके नाम सु पांच जताए ॥ सुमरन संज्ञा विचार लखौ भिनिबोध सु चितन भेद कहो है। ता मतिज्ञानको कारण जान सु इंद्री मन सब संग लहो है ५
छन्द मदराबरन । प्रथम देखना फिर विचारना बहरि परखना चितधरना । १३ स्मरण प्रत्यभिज्ञान तक अनुमान। १५अवग्रह ईहा अवाय धारणा ।
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तत्त्वार्थसूत्रबहुबहुविधक्षिप्रानिःसृताऽनुक्तध्रुवाणां सेतराणाम् ।। १६॥ अर्थस्य ॥ १७॥ व्यञ्जनस्यावग्रहः ॥ १८॥ न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥१९॥ श्रुतं मतिपूर्व घनेकदादशभेदम् ॥२०॥ भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम् ॥२१॥ क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ॥२२॥ ऋजुविपुलमती मनःपर्यायः ॥ २३॥ विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां बहु बहु विधि छिपा अरु अनिसृत अरु अनुक्त निश्चल बरना॥ षट इनके प्रतिपक्षी लेकर ये बारह चितमें धरना । अबग्रहादि चारसि गुणकर फिर मनइन्द्रीस गुणना ॥६॥
सवैय्या। इह विध अर्थ अवग्रके भेद भये सब दोसै अठासी बखानो। मैन अरु चक्षुको छोड़ गुनो अड़तालिस भेद सु व्यञ्जन जानो यों सेब तीनसै छत्तिस भेद भये मतिज्ञानके चित्तमें आनो। पूर्व कहो श्रुतज्ञान सु ताके भेद अनेक हु बारह मानो ॥७॥ नारकि देवकों होत भवो क्षये उपशम कर्म रु कारण जानो। शेषनके षट भांति सु ज्ञात कहो सु अवधिबल ज्ञान बखानो। *जुमति और विपुल मनपर्यय भेद कहे दो वेद कहानो ।
.. पूर्वमतिज्ञान पूर्वक।
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भाषा छंद सहित । तद्विशेषः ॥२४॥ विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्याययोः ॥२५॥ मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ॥२६॥ रूपिष्ववधेः ॥२७॥ तदनन्तभागे मनःपर्ययस्य ॥२८॥ सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥२९॥ एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्थ्यः ॥३०॥ अप्रतिपाति विशुद्ध के कारण इन दोनोंमें विशेषता जानो॥८॥
दोहा। विशुद्ध क्षेत्र स्वामी विषय चारों कारण लेख । मनपर्जय अरु अवधिके जानो भेद विशेष ॥ ९॥ मैति श्रुति जानन नेम है द्रव्यन विर्षे सु जान । थोड़ी पर्जायें लखें द्रव्यनकी पहिचान ॥ १० ॥ रूपी पुद्गल जान अरु पुदगल रूपी जीव । थोडी पर्जाओं सहित जाने अवधि सदीव ॥११॥ सूक्ष्म रूपी वस्तु जो अवधि लखाई देत । तासु अनंते भागको मनपर्जय लखि लेत ॥१२॥ सर्व द्रव्य पर्जायको केवल विषय विख्यात । मैतिज्ञानसे चार लौं जुगपत जीव लहात ॥१३॥
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तत्त्वार्थसूत्रमतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥३१॥ सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥ ३२॥ नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूता नयाः ॥३३॥
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्र प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
औपशमिकक्षायिको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वमतिश्रतिज्ञान रु अवधिके तीन विपर्जय ज्ञान । कुमति कुश्रति कुअवधि लखि क्रम क्रम ही पहिचान॥१४॥ सैत असत्य निर्नय बिना इच्छाकर उनमत्त । ग्रहण करै जो ज्ञानको सोई विषय अनित्त ॥१५॥ सात भेद नयके कहे नैगम संग्रह जान । तीजी नय व्यवहार है द्रव्यार्थिक त्रय मान ॥१६॥ चौथी नय ऋजुसूत्र है शब्द पांचमी वीर । समभिरूढ़ वंभूत नय छटी सातमी धीर ॥१७॥ पर्जय अर्थिक चार नय पिछिली कही सु जान । प्रथम तीन नय जो कहीं सो द्रव्यार्थक जान ॥१८॥
ज्ञानरु दर्शन तत्त्व नय लक्षण भेद प्रमाण । इन सबको बरणन कियो पहिलो अध्या जान ॥ १९ ॥
३२ आनित्त - विपरीत । ३३ वंभूत = एबंभूत ।
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छन्द बिजया।
भाषा छंद सहित। तत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ॥ १॥ द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ॥ २॥ सम्यक्त्वचारित्रे ॥३॥ ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥४॥ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ॥ ५॥ गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शना:ज्ञानाऽसंयताऽसिद्धलेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकैकषड्भेदाः उपशम क्षायिक मिश्र सुभाव सु जीवको भाव स्वरूप बखानो। उदयिक अरु परिनामिक जान सुनीचे लिखे प्रति भेद सुजानो॥ दो विध उपशम क्षायिक नौ विध मिश्र अठारह भेद बताए । उदयिक भाव लखौ इकबीस परिनामिकके त्रय भेद सु गाए ॥१॥ उपशम सम्यक चारित्त दो अरु दर्शन ज्ञान रु दान बखानो। लाभ भोग उपभोग लखौ इम वीर्यको योग करौ नौ जानो। ज्ञान सु चार अज्ञानहु तीन रु दर्शन तीन रु लब्धिके पांचौ ।। संयमासंयम चारित सम्यक तीन मिलाय अठारह हु सांचौ॥२॥ चारि कषाय कहीं गति चारि रु लिंग सु तीन संयोग करो है । लेश्या छै परकार लिये अज्ञान असंजित चित्त धरो है ॥ मिथ्यादर्शन और असिद्ध भये इकवीस खभाव गिनो है
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तत्वार्थ सूत्र
॥ ६ ॥ जीवभव्याऽभव्यत्वानि च ॥ ७ ॥ उपयोगो लक्षभम् ॥ ८ ॥ स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ॥ ९ ॥ संसारिणो युक्ताश्च ॥ १० ॥ समनस्काऽमनस्काः ॥ ११ ॥ संसारिणस्त्रसस्थावराः ॥ १२ ॥ पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः ॥ १३ ॥ दीन्द्रियादयस्त्रसाः ॥ १४ ॥ पञ्चेन्द्रियाणि ॥ १५ ॥ द्विविधानि ॥ १६ ॥ निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥ १७ ॥ लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् ॥ १८ ॥ स्प
जीव भव्य अभव्य लखौ परिनामिक तीन प्रकार भनो है ॥ ३ ॥ सु ती परिणामिक लक्षण जान कहो उपयोग सु दोयें प्रकारा । ज्ञानुपयोग है आठ प्रकार रु दर्शन भेद सु चार निहारा || जीवनि भेद सु दोय लखौ संसारी सिद्ध कहौ निरधारा | मनेकर सहित रहित सथावर यों दो भेद सु सूत्र मझारा ||४|| पृथिवी जल अरु तेज सुजानो बायु बनस्पति थावर सारा । पुनि दो इन्द्री आदि लखौ त्रस संज्ञक रूप सु वेद निहारा ॥ द्रव्य अरु भाव मिलाय गिनो पंच इंद्री के भेद सु दो बखानो । इंद्रीको निवृत्त गिनो उपकर्णको चिन्ह प्रघट्य लखानो ||५|| जिर्नकर देखन जानन होय सु इंद्री भावको भाव जतानो
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भाषा छंद सहित.। निरसनघाणचक्षुःश्रोत्राणि ॥ १९॥ स्पर्शरसगन्धवर्णशद्वास्तदर्थाः ॥२०॥ श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥२१॥ वनस्पत्यन्तानामेकम् ॥२२॥ कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुप्यादीनामेकैकवृद्धानि ॥२३॥ संज्ञिनः समनस्काः ॥ २४ ॥ विग्रहगतौ कर्मयोगः ॥२५॥ अनुश्रेणि गतिः नोंक रु नेत्र सु कान कहे अरु जीभ स्पर्श सु इंद्री जानो॥ गंधै रु बर्ण सु शब्द कहे रस जान स्पर्शन पांच विषय हैं । मैनकि समर्थसों शास्त्र सु जानत थोवर पांच इकेंद्री निचय हैं।॥६॥
दोहा। कृमि पिपीलिका भ्रमर अरु मनुष आदि जे जीव । एक एक इंद्री अधिक धारत ज्ञान सदीव ॥ ७॥ संज्ञी जीव सु जानिये मन कर सहित सु जान । विग्रेह गतिके भेदको बर्णन करौं बखान ॥ ८॥ गतित गत्यांतर गमन कर्मयोग तैं जान । विIहविन सूधो गमन जीव अणू पहिचान ॥९॥ सूधो गमन स्वभाव है, टेढो गमन विभाव । • यह 'अनुश्रेणि गतिः' का अर्थ है । बिग्रहगतिमें जीवकी गति तथा पुद्गलपरमाणुकी गीत लोकाकाशमें श्रेणीवद्ध ही होती है। यही इसका अभिनाय है।
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तत्त्वाथसूत्र
॥२६॥ अविग्रहा जीवस्य ॥२७॥ विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्थ्यः॥ २८॥ एकसमयाऽविग्रहा ॥२९॥ एक दौ त्रीन्वाऽनाहारकः ॥३०॥ सम्मूर्छनगर्भोपपादा जन्म ॥ ३१॥ सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः॥३२॥ जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः ॥३३॥
कर्मयोग” होत सो, विधिविन सरल स्वभाव ॥१०॥ संसारी जीवन कहो, विग्रह गति निरधार। चार समय पहिले गिनो, ऐक अविग्र निहार ॥११॥ सैंमय एक दो तीन लौं, रहै जीव विन हार । नाम अनाहारक कहो, भाषो सूत्र मझार ॥१२॥ सन्मूर्छन गर्भज कहे, उपपादक हू जान । ऐसे जन्म सु थान लख, तीनों भेद प्रमान ॥१३॥ चोरोसीलख योनि यों, सचित शीत अरु उस्न । संवृत सेतर मिश्र जे, गुनो परस्पर प्रस्न ॥१४॥ जैर अंडज पोतज कहे, गर्भ जन्मके थान ।
२७ विधि अर्थात् कर्मरहित मुक्त जीवों की गति कुटिलता रहित होती है । २९ एक समय में कुटिलता रहिल गात होती है।
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भाषा छंद सहित । देवनारकाणामुपपादः ॥३४॥ शेषाणांसम्मूर्छनम् ॥३५॥
औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि ॥३६॥ परं परं सूक्ष्मम् ॥ ३७ ॥ प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक् तैजसात् ॥ ३८॥ अनन्तगुणे परे॥३९॥ अप्रतीघाते ॥ ४०॥ अनादिसम्बन्धे च ॥४१॥ सर्वस्य ॥४२॥ तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुभ्यः ॥४३॥
देव नारकी दोय उपपादक जन्म बखान ॥१५॥ शेरे जीव संज्ञा कही, सो सन्मूर्छन जान । पांच भेद वपु जानियों, ताको करौं बखान ॥१६॥
औदारिक वैक्रियक पुनि, आहारक हू जान । कारमान तैजस सहित, पांच सरीर बखान ॥१७॥ पैर परके सूक्षम लखौ, अनुक्रम उक्त बखान । [ण असंख्य परदेश हैं, तैजस पहिले जान ॥१८॥
___ छंद विजया। अतके दोय अनंत गुणे नहीं पीत किसी परकार सु जानौ । जीव संबन्ध अनादि कहो सब जीवन माहिं लखो अनमानो ॥ एक समय इक जीवके चार शरीर सु होत सु सूत्र बखानो।
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तत्त्वार्थसूत्रनिरुपभोगमन्त्यम् ॥४४॥ गर्भसम्मूर्छनजमाद्यम् ॥४५॥ भोपपादिकं वैक्रियिकम् ॥४६॥ लब्धिप्रत्ययं च ॥४७॥ तैजसमपि ॥४८॥ शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रम
संयतस्यैव ॥ ॥४९॥ नारकसम्मूर्छिनो नपुंसकानि ॥५०॥ न देवाः॥५१॥ शेषास्त्रिवेदाः॥५२॥ औपपादिकचरमोत्तमदेहाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ॥ ५३॥
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
भागके योग कहो नहिं अंतिम सूत्रमें या विध रूप दिखानो१९/ सन्मूर्छन गर्भज जीवनको औदारिक आदि शरीर बतायो । लब्धिके धारी मुनीजनऔ उपपादके वैक्रियिक दोय कहायो । तैजस भी तिनही मुनिकें आहारक शुद्ध सु निर्मल थायो। काहू कर घातोजाय नहीं गुणथान छटे मुनिराज गायो॥२०॥ नॉरकी और सन्मूर्छन जीव सुजानो नपुंसक वेद कहे । देवेनके यह वेद नहीं बाँकी सब जीव त्रिवेद कहे ॥ उपादिक चर्मशरीरीकी अरु उत्तम संहनन धारीकी । असंख्यातवर्षबालिनकी कहि नहिं बीचमें आयु छिदै इनकी२१
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भाषा छंद सहित।
रत्नशर्करावालुकापङ्कघूमतमोमहातमःप्रभाभूमयो | घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताऽधोऽधः ॥ १ ॥ तासु त्रिंशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशदशत्रिपञ्चोनेकनरकश: तसहस्राणि पञ्च चैव यथाक्रमम् ॥२॥ नारका नित्या
दोहा।
तत्त्वारथ यह सूत्र है, मारग मोक्ष प्रकाश । यह प्रकार पूरण भयो, दूजो अध्या तासु ॥ २२ ॥
दोहा। रन शरकरा बालुका, पंक धूम तम जान । तथा महातम सप्तमी, प्रभा नर्क दुखखान ॥१॥ घन अंबू आकाश त्रय, बात बिले लपटान । सप्त नर्क पृथिवी तनी, नीचे नीचे जान ॥२॥
छन्द मदरावरन । जिन नोंमें बिले कहे हैं तिनकी संख्या सुनो सुजान । प्रथम नर्कमें तीसलाख बिल दूजे लाख पचीस बखान ॥ तीजे पंद्रह लाख गिनो विल दश लख चौथेमें परमान । श्वभ्र पांचवें तीन लाख हैं छटे पांच घट लाख सुमान॥३॥
नरक।
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तत्त्वार्थसूत्र शुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनांविक्रियाः ॥३॥ परस्परोदीरितदुःखाः॥४॥ संक्लिष्टाऽसुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ॥५॥ तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्त्वानां परा स्थितिः ॥६॥ जम्बूद्वीपलवणोदादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः॥७॥
दोहा। . नरक सातवें पांच हैं, सब चौरासी लाख । या विध सातौ नर्कके, संख्या विलकी भाष ॥४॥
सोरठा। लेश्या अरु परिणाम, देह बेदना विक्रिया । महा अशुभ दुखधाम, धेरै नारकी नित क्रिया ॥५॥ देत परस्पर दुक्ख, पावें घोर जु वेदना। असुरकुमारन कृत्य, जानो तीजे नर्कलों ॥६॥
छन्द विजया। नारकि आयु प्रमान सुनो इक सागर प्रथम दुसरे तीना। तीजे सात समद दश चौथे पांचवें सत्रह सागर दीना ॥ बाइस तिस सागर जान छटयें अरु सातये नर्क सुथाना। जम्बू आदिक द्वीप गिनो लवनोदधि आदि समुद्र बखाना॥७॥
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भाषा छंद सहित
द्विदिविष्कम्भाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयाकृतयः॥८॥ तन्मध्ये मेरुनाभिर्वृत्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भो ज| म्बूद्वीपः ॥९॥ भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि ॥१०॥ तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः॥११॥ हेमार्जुनतपनीयवैडूर्यरजतहेममयाः ॥ १२॥ मणिविचित्रपार्था उपरि मूले च तुल्यट्ठीपत दूने समुद्र कहे अरु आगेके द्वीप समुद्रत दूनें। याही भांति भिड़े हैं परस्पर आकृति गोल सु सुन्दर चीने ॥ लख तिनके मध्य सु जम्बूद्वीप सुमेरु सु नाभि सु सूत्र बतायो | योजन लाख चौड़ाई कही या भांति श्रीगुरुने दरशायो ॥८॥
दोहा। भैरत हेमवत हरि तथा, चौथा क्षेत्र विदेह । रम्यक ऐरावत हिरन, सात क्षेत्र लख एह ॥९॥
छन्द विजया। हिमवन महाहिमवान निषध्या नील सु रुक्मि शिखिरनी जानो पूरव पच्छिम लंबे कहे पुनि क्षेत्र विभागको कारण मानो ॥ सुवरन रूपो तायो सुवरन मनो वैडूर्य सु रंग कहो है।
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दोहा।
तत्वार्थसूत्र विस्ताराः १३॥ पद्ममहापद्मतिगिन्छकेसरिमहापुण्डरीकपुण्डरीका इदास्तेषामुपरि ॥१४॥ प्रथमो योजनसहस्रायामस्तदर्द्धविष्कम्भो इदः ॥१५॥ दशयोजनावगाहः ॥१६॥ तन्मध्ये योजनं पुष्करम् ॥१७॥ तद्विगुणद्विगुणा हृदाः पुष्कराणि च ॥१८॥ तन्निरूपो सोनो सु रंग लखो क्रम जान कुलाचल वर्ण लहो है॥१०
बने किनारे रत्नके, ऊपर नीचे तुल्य । छहों कुलाचल जानियों, करियो भाव निशल्य ॥११॥ तिन ऊपर छह कुंड हैं, पैगद्रह महापद्म । तिगच्छ केसरी महापुंड, पुंडरीक सुख सद्म ॥१२॥ छह पर्वतके छह दहा, या विध तिनके नाम । अब आगे विस्तार, विधि, कहौं सकल सुखधाम ॥१३॥
चौपाई। . लैंबो योजन एक हजार । चौड़ाई तसु अई निहार ॥ देश योजन गहराई जान । पहिले द्रहको जान प्रमान ॥१४॥
दोहा। तामधि योजन एकको, राजत कमल सु एक । =हते द्रह दूनो लखौ, त्यों ही कमल विशेष ॥१५॥
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भाषा छन्द सहित । वासिन्यो देव्यः श्रीदीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्यो पमस्थितयः ससामानिकपरिषत्काः ॥१९॥ गङ्गासिन्धुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकान्तासीतासीतोदानारीनरकान्तासुवर्णरूप्यकूलारक्तारक्तोदाः सरितस्तन्मध्यगाः ॥२०॥द्वयोर्दयोः पूर्वाः पूर्वगाः ॥२१॥ शेषास्त्वपरगाः ॥ २२॥ चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृता गङ्गासिन्ध्वादयो नद्यः ॥२३॥ भरतः षड्विंशतिपञ्चयो
छन्द विजथा। वाशिनि छहों कुलाचलकी षट देवीके नाम सुनो सु सही । श्री ही अरु धृति कीर्ति कही बुधि देवी लक्ष्मी जान सही ।। पल्यकी आयु जु है सबकी अरु तुल्य समा सुखसाज लही गंगा सिंधु सु रोहित रोहिता हरित नदी हरिकांत कही ॥१६॥ सीता अरु सीतोदा नदी नारी अरु नरकांत सही। सुवरणकूला रूपकुला अरु रक्ता रक्तोदा सबही ॥ नदिय चतुर्दशको परवाह भयो तिन कुंडनतें भुविमें। दो" दो नदि पूरवको गई अरु दो दो शेष अपूरबमें॥१७॥ गंग कुटुन्ब सहस्र चतुर्दश सिन्धु चतुर्दशतें दूनो। • सामानिक । + पारिषद।
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तत्वार्थसूत्र
जनशतविस्तारः षट्चैकोनविंशतिभागायोजनस्य २४ तद्विगुणद्विगुणविस्तारावर्षधरवर्षा विदेहान्ताः॥२५॥ उत्तरा दक्षिणतुल्याः॥२६॥ भरतैरावतयोवृद्धिासौषट् समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसणीभ्याम् ॥२७॥ ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः॥२८॥ एकद्वित्रिपल्योपमस्थितयोहैपंचे शतक छबीस कला षट योजन भरत सु क्षेत्र कहानो ॥ इक योजनकी उनईस कला तामें छै लेख सु ऊपर हैं। आगे क्षेत्र सु पर्वतको विस्तार सु दूनो भूपर हैं ॥१८॥
चौपाई।
क्षेत्र दुगुन पर्वतको मान । पर्वत दूनो क्षेत्र बखान ॥ यों विदेह पर्यंत सुहान । उत्तर दक्षिण तुल्य सुजान ॥१९॥ भरत और ऐरावतमाहिं । घटती बढ़ती काल कहाहिं ॥ उतसर्पिणि अवसर्पिणि काल । तिनके छै छै भेद निराल ॥२०॥ शेष भूमि राजतिं हैं और । तिनमें नहीं कालकी दौर ॥ सदाकाल इककाल सुहान । तीन पल्यलौ आयु प्रमान ॥२१ हिमवतमें इक पल्य सु जान । दो हरिबर्षक क्षेत्र वखान॥
* भरत ऐरावतक्षेत्रको छोड़कर अन्यत्र रहनेवाले भोगभूमियोंकी उत्कृष्ट भायु दिखलाई है।
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भाषा छंद सहित । मवतकहारिवर्षकदेवकुरवकाः ॥२९॥ तथोत्तराः॥३०॥ विदेहेषु सङ्ख्येयकालाः ॥३१॥भरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्यनवतिशतभागः।३२। दिर्धातकीखण्डे ॥३३॥ पुष्कराद्धे च ॥३४॥ प्रामानुषोत्तरान्मनुष्याः॥३५॥ आर्या म्लेच्छाश्च ॥३६॥ भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः॥३७॥ नृस्थिती परावरे
भूमि देवकुरु तीन सु कही । यही भांति उत्तरकुरु लही ॥२२॥ विदेह क्षेत्र संख्यात सु काल । कोटि पूर्व उतकृष्टि सु हाल ॥ जम्बूद्वीप क्षेत्र अनुराग । ताके इकसौ नब्बे भाग ॥२३॥ भरतक्षेत्र चौड़ाई जान । दूनी धातकीखंड बखान ॥
आगे पुष्करद्वीप सुजान । रचना धातकी खंड प्रमान ॥२४॥ मानुषोत्र पर्वतके उरें । नहिं मानुष पर्वतके परें ॥ दो प्रकारके मानुष कहे । आरज और मलेक्ष सु लहे ॥२५॥ भरतक्षेत्र ऐरावत मान । और विदेह कर्मभुअ जान ॥ देवकुरू उत्तरकुरू थान । भोग भूमि तहँ कही सुखदान ॥२६॥ आयु पल्य त्रय नैरै उतकृष्टि । अंत मुहूरत जघन सु दृष्टि ॥
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तत्त्वाथसूत्र
त्रिपल्योपमान्तर्मुहुर्ते॥३८॥ तिर्यग्योनिजानांच॥३९॥ .: इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशाने तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥ . . देवाश्चतुर्णिकायाः॥ १॥आदितत्रिषु पीतान्तलेश्याः ॥ २॥ दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्य्यन्ताः ॥३॥ इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकर्णिकाभियोग्यकिल्विषिकाश्चैकशः ॥४॥ त्रायस्त्रिंशलोकपालवाव्यन्तरज्योतिष्काः उत्तम भोगभुमि मनुजान । अरु तिरयंच आयु इह मान ॥२७॥
दोहा। .. तत्वार्थ यह सूत्र है, मोक्षशास्त्रको मूल । . तृतिय अध्याय पूरण भयो, मिथ्यामतको शूल ॥२८॥
राड़ा छन् । देव सु चतुरनकाय तीने में पीतलौं लेश्या । देश परकार निहार भवनवाशी मु त्रदशया ॥ व्यंतर आठ प्रकार ज्योतिषी पंच कहे हैं।
द्वादश भेद निहार स्वर्गवासी सु लहे हैं ॥१॥ इंद्र. समानिक त्रायस्त्रिंशत देव पारषद हैं सु सबीके । आतमरक्ष लोकपाल षट सप्त भेद सु जान अनीके ॥
छन्द कसुमलता
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भाषा छंद लाहित ।
॥५॥ पूर्वयोभन्द्राः॥६॥ कायप्रवीचाराआ ऐशानात् ॥७॥शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचाराः ॥८॥ परेऽप्रवीचाराः ॥९॥ भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णामिवातस्तनितोदधिद्धीपदिक्कुमाराः ॥१०॥ व्यन्तराः किन्नरकिम्पुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिपरकीर्नक अभियोग किलिविशक जान दश हैं। यह देवनकी जाति देव प्रति मान सु दश हैं ॥२॥ व्यंतर ज्योतिषमाहि त्रायत्रिंशत नहिं देवा । लोकपाल भी नाहिं जान यह निश्चै भेवा ॥ वांशी भवन सु देव और व्यतरके माही । दो दो इंद्र निहार रीति यह सूत्र कहांही ॥ ३ ॥ भाग कायकर जान स्वर्ग सौधर्म ईशाना । स्पर्श रुप अरु शब्द चित्तसों सुरगन थाना ॥ वर्ग ऊपरे देव रहित इस्त्री संयोगा । वाशी भवन सु देव जान दश भेद मनोगा ॥ ४ ॥
दोहा । असुर नाग विद्युत तथा, सुपर्न अग्नि रु वात । तनित उदधि अरु द्वीप दिग, दशकुमार विख्यात ॥५॥
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२२
तत्वार्थ सूत्र
शाचाः || ११|| ज्योतिष्काः सूर्य्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षप्रकीर्णकतार काश्च ॥ १२ ॥ मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयोनृलोके ॥ १३ ॥ तत्कृतः कालविभागः ||१४|| बहिवस्थिताः ॥ १५ ॥ वैमानिकाः ॥ १६ ॥ कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ॥ १७ ॥ उपर्युपरि || १८ || सौधर्मेशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्टशुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु ग्रैवेयकेषु विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु सर्वार्थव्यंतेर किन्नर किम्पुरुष, महाउरग गंधर्व । यक्ष और राक्षस कहे, भूत पिशाच सु सर्व ॥ ६ ॥ ज्योतिष सूरज चंद्रमा, ग्रह नक्षत्र प्रकीर्ण | मेरु प्रदक्षण देते हैं मनुज लोक नित कीर्ण ॥ ७ ॥ इहीं ज्योतिष देवकर होत कालको ज्ञान ।
fit अढाई बाहरे इस्थिर ज्योतिष जान ॥ ८ ॥
संबैया तथा बिजया ।
वशी विमान सु देव कहे अरु स्वर्गेनसे सुरवाशी कहाये । स्वर्ग परें अहमिंद्र कहें अरु ऊपर ऊपर थान लहाये ॥ सौधर्म ईशान सुस्वर्ग कहे अरु सनतकुमार महेंद्र सुगाए ।
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भाषा छंद महित ।
सिद्धौ च ॥ १९॥ स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्याविशुद्वीन्द्रियावधिविषयतोधिकाः ॥ २० ॥ गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतोहीनाः ॥ २१ ॥ पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ॥ २२ ॥ प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः ॥ २३॥ | ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लांतव स्वर्ग कपिष्ट सु शुक्र नवों गिनलाए ॥१॥ महाशुक्र सतार सु ग्यारम है सहस्रार सु आनत जानो। प्राणत आरण अच्युत मान सौधर्मनै सोलह वर्ग बखानो॥ तिन ऊपर नव नव ग्रीवक हैं अरु तिनपर नव नव अनुदिशि हैं। तिन ऊपर पंच पंचोत्तर हैं तिननाम सुने मन मोदत हैं ॥ १० ॥ प्रथम विजय वैजयंत सु दूजो तीजो जयंत सु नाम बतायो। पुनि चौथो अपराजित पंचम सीरथसिद्ध नाम लहायो ॥ वैभव सुक्ख समाज थिती लेश्या अरु तेज विशुद्ध पनो है। ज्ञान अवधि पहिचान विषय इन माहिं सुऊपर अधिक भनो है११|
गैति शरीर परिग्रह तथा, और जान अभिमान । इनमें हीन निहारिये, ऊपर उपर जान ॥ १२ ॥ लेश्या पीत सु जानियो दोय जुगलके मांहि । तीन जुगलमें पद्म है शेष शुक्ल शक नाहिं ॥१३॥
दोहा।
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तरवार्थसूत्र
प्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः॥२४॥ सारस्वतादित्यवत्यरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधारिष्टाश्च ॥२५॥ विजयादिषु डिचरमाः ॥ २६ ॥ औपपादिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः ॥२७॥ स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्योपमार्द्धहीनमिताः॥२८॥
नवं ग्रीवक पहिले कहे, स्वर्गसमूह स थान। .. ब्रह्मवर्ग लौकांत सुर आठप्रकार बखान ॥ १४ ॥ सारस्वत आदित्य हैं, बह्नी आरुण श्रेष्ठ ।
गर्दतोय अरु तुषित हैं, अव्याबाध अरिष्ट ॥१५॥ विजय आदि चारौ विमानके दो भवधरके मोक्ष पधारें । पंचम जान विमान व ते तदभव मुक्तिको पंथ निहारें ॥ नॉरकी देव कहे उपपादिक और मनुष्य सु छोड़ि बताये । शेष सु जीव तिर्यच लखौ इह भांति सु सूत्रमें भेद जताये ॥१६।।
सुरकुमार आरबल जान । सागर एक कहो परमान ॥ तीन पल्य लख नाग कुमार । ढाई पल्य सुपरणकी सार ॥१७॥ द्वीपकुमार पल्य दो जान । डेढ पल्य शेषन परिमान ॥
२६ आदि शब्दसे मनुर्दिश भी प्रहण करना चाहिये ।
मवैय्या ।
चौपाई।
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भाषा छंद संहित ।
२९
सौधर्मेशानयोः सागरोपमें अधिके ॥ २९ ॥ सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त ॥ ३० ॥ त्रिसप्तनवेकादशत्रयोदपञ्चदशभिरधिकानि तु ॥ ३१ ॥ आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु ग्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥ ३२ ॥ अपरा पल्योपममधिकम् ।। ३३ ।। परतः परतः पूर्वापूर्वानन्तराः ॥ ३४ ॥ नारकाणां च द्वितीयादिषु यह विध उत्तम आयु समान । भवन वाशि देवनकी जान ॥ १८ ॥ के अधिक दो सागर सार । सऊधर्म ईशान मझार || सनत कुमार महेंद्र विख्यात । सागर सात सु जानो भ्रात ||१९|| जुँगेल तीसरे दशकी जान । चौथे जुगल सु चौदह मान ॥ जुगल पांचवें सोलह लेउ । छटे अठारह सागर देउ ॥ २० ॥ जुगल सातवें बीस निहार । बाइस जुगल आठमें धार ॥ नवे ग्रीक इकतीस बखान । नवें नवोत्तर बत्तिस मान ॥ २१ ॥ पंच पंचोत्तर तेतिस आयु । जधैन्य पल्य किंचित अधिकायु|| प्रथम आयु उतकृष्टि कहान । सो जघन्य अगले में जान ॥ २२ ॥ यही भांति नरकनके माहिं । आयु भेद जानो शक नाहिं ||
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३३ पहले युगल में जघन्य आयु कुछ अधिक एक पत्की हैं।
२५
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२६.
तत्वार्थ सूत्र
।। ३५ ।। दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम् ॥ ३६ ॥ भवनेषु च ॥ ३७ ॥ व्यन्तराणां च ॥ ३८ ॥ परा पल्योपममधिकम् ॥३९॥ ज्योतिष्काणां च ॥४०॥ तदष्टभागोऽपरा ॥ ४१ ॥ लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम् ४२॥
इति तवार्थाधिगमे मोक्षशास्त्र चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ अजीवकाया धर्माधर्म्माकाशपुद्गलाः ॥ १॥ द्रव्या णि ॥ २ ॥ जीवाश्च ॥ ३ ॥ नित्यावस्थितान्यरूपाणि नरक दूसरे तैं पहिचान । ऊपरको परिमान सुजान ॥ २३ ॥ प्रथम नरकको जघन प्रमान । वर्ष हजार दशकको जान ॥ यही भवन व्यतर के माहिं । व्यंतरे आयु उतकृष्टी पांय || २४|| किंचित अधिक पल्य परिमान । ज्योतिष याही भांति सुजान ॥ पये आठवें भाग निहार । जघन्य आरबल ज्योतिष धार ||२५| सागर आठ लोकांतिक देव | आयु कही सबकी इह भेव ॥ दोहा | तत्वारथ यह सूत्र है, मोक्ष शास्त्रको मूल ।
४२
अध्याय तुर्य पूरण भयो, मिथ्या मतको शूळ ||२६||
छंदावजया ।
काय अजीव धर्म अधर्म अकाश रु पुद्गल भेद बखानो । जीव सु द्रव्य मिलाय दिये पंचास्ति सु कायको भेद जतानो॥
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भाषा छंद सहित ।
॥ ४ ॥ रूपिणः पुद्गलाः ॥ ५ ॥ आ आकाशादेकद्रव्याणि ॥ ६ ॥ निष्क्रियाणि च ॥ ७ ॥ असङ्घयेयाः प्रदेशा धर्म्मामैकजीवानाम् ||८|| आकाशस्यानन्ताः ॥९॥ सङ्ख्येयासङ्ख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥ १० ॥ नाणोः ॥ ११॥ लोकाकाशेऽवगाहः ॥ १२ ॥ धर्म्माधर्म्मयोः कृत्स्ने ॥१३॥ एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ॥ १४ ॥ असङ्खयेयभागादिषु जीवानाम् ॥ १५ ॥ प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां निय सुसात जान इन्हें अरु मान अरूपी पुल रूपीं । धर्म अधर्म अकाश ये तीनो रहित किया इक क्षेत्र निरूपी ॥ १ ॥ चौपाई।
२७
धर्म अधर्म असंख्य प्रदेश । यही जीवके जान प्रदेश । अनंत प्रदेश अकाश स्वतंत्र | पुदंगल संख्य असंख्य अनंत ॥२॥ फेरि भोग जाको नहि होय । नाम प्रदेश बतायो सोय || लोके अकाशवि है वाश । द्रव्यनको जानो सुखराश ॥ ३॥ धर्म अधर्म द्रव्य परदेश | व्यापत लोकाकाश भनेश || लोककाश प्रदेशन मांय । पुदगल द्रव्य प्रदेश वसांय || ४ || तासु असंख्य भागमैं जान । जीवनको अवगाह प्रमान ॥
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२८
तस्वार्थसूत्रप्रदीपवत् ॥ १६॥ गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः॥१७॥ आकाशस्यावगाहः॥ १८॥ शरीरवा अनः प्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥१९॥ सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥२०॥ परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥२१॥ वर्त्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य ॥२२॥ स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः॥२३॥ शब्दबन्धसोक्षम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायाऽऽतपोद्योतवन्त श्च ॥२४॥ अणवः स्कन्धाश्च ॥२५॥ भेदसङ्घातेभ्य जियप्रदेश संकुच विस्तार ।दीपक तुल्य जान निरधार॥५॥ पुदगल जीव चाल सहकार । धर्मद्रव्य जानो उपकार ॥ तिनको इस्थित करै सु जान । द्रव्य अधर्म स्वभाव बखान ॥६॥ गुंण अकाश अवगाहन वीर।पुर्दगल जोग सुनो मन धीर॥ मन बच स्वास उस्वास शरीर । सुख दुख जीवन मरन अधीर ॥७॥ जियउपकार परस्पर जीव । कोले सु लक्षण जान सदीव ॥ वर्तमान परिनमन सु जान । क्रिया परत्व अपरत्व बखान ॥८॥ पुदगल लक्षण सपरस गंध । वरन और रस शैब्द सु बन्ध ॥ सूक्षम थूल भेद संस्थान । तम छाया आतप पहिचान ॥९॥
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भाषा छंद सहित |
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उत्पद्यन्ते ॥ २६ ॥ भेदादणुः ॥ २७ ॥ भेदसङ्घाताभ्यां चाक्षुषः ॥ २८ ॥ सद्द्रव्यलक्षणम् ॥ २९ ॥ उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत् ॥३०॥ तद्भावाव्ययं नित्यम् ॥३१॥ अर्पितानर्पितसिद्धेः॥३२॥ स्निग्धरूक्षत्वाद्वन्धः॥३३॥न जघन्यगुणानाम् ॥३४॥ गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥ ३५॥ द्यधिकादिगुणानां तु ॥३६॥ बन्धेऽधिको पारिणामिकौ च ॥ ३७॥ गुणपर्य्ययवद्द्रव्यम् ॥ ३८ ॥ अणू और इस्कन्ध निहार | पुदगलभेद कहै निरधार ॥ भेदकर उपजे सोय । भेदै अणूको रूप सु जोय ॥ १० ॥ भिन्न अणू मिलि ग्रहै सु तेम । नहीं ग्रहै ऐसा भी नेम ॥ । लक्ष्य द्रव्य अस्तित्व बखान। उपजै विनशै थिर हुय मान ॥ ११ ॥ अविनाशी साखत सो जान । अर्पित नार्पित सिद्ध बखान i स्मिग्धै रूक्षसे वन्ध सु होय । पुदगल द्रव्य बन्ध है सोय || १२ || जघन्य होय वा सँमै गुण सोय । पुदगलबन्ध कभी नहिं होय ॥ दो गुण अधिक बन्ध मिलीजाहिं । बन्ध निपात पुदगलकोबा हिं१३
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२६ संघात । : २८ चक्षुगोचर आदिको सिद्धि होती है । ३७ बंध बाह हो जाता है ।
होता है । ३२ मुख्यता योणता से नित्य अनिस अधिक गुण जैसे होते है उस द्रव्यका परिणाम भी
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तत्वार्थसुत्र
...aamaanaamaaram
कालश्च ॥ ३९ ॥ सोऽनन्तसमयः ॥ ४०॥ द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ॥४१॥ तद्भावः परिणामः ॥ ४२ ॥
इति तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे पश्चमोऽध्यायः ॥५॥ . कायवाङ्मनः कर्म योगः ॥ १॥ स आस्रवः ॥२॥ शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ॥ ३॥ सकषायाकषाययोः गुंण पर्याय युक्तिकर बीर । जानो द्रव्य महा गंभीर ॥ पैः मासके भेद निहार । अनंत समय जानो निरधार ॥१४॥
मोरठा।
कालहु द्रव्य सु जान, दैव्याश्रित निरगुण गुण ।। द्रव्य स्वरूप वखान, सो परणामी कहो यह ॥ १५ ॥
दोहा। तत्वारथ यह सूत्र है, मोक्षशास्त्रको मूल । पंचमाध्याय पूरण भयो, मिथ्यामतको शूल ॥ १६ ॥
पद्धरी छंद । मन वचन कायके कार्य जान । सो योग कहे ऋतमें निदान ॥ आश्रव इनको संयोग होय । शुभ अशुभ भेदसोजानो दोय॥१॥ परिणाम सुशुभसों शुभ बखान ।लख अशुभ भावसों अशुभजान ____३९ ये कालगन्यके भेद हैं।
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भाषा छंद सहित। साम्परायिके-पथयोः॥४॥ इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः ॥ ५॥ तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्ताहिशेपः॥ ६ ॥ अधिकरणं जीवाजीवाः॥७॥ आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः॥८॥ निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिमिाती उपशांतिक सु जीव । तिनकें हुय आश्रव कर्मतीव॥२॥
चौपाई। इंद्री पांच कषाय जु चार । अव्रत भेद सो पांच निहार ॥ किया भेद पच्चीस बखान । जे सब आश्रव भेद सुजान ॥ ३ ॥ तीन मंद आश्रवकौं मान । भाव विशेष जान उनमान ॥: आँश्रव जीव अजीव निसार। या बिध सूत्र कहो निरधार ॥४॥ जीर्वघात कृतकरन अभ्यास । और होय आरम्भ सु तास ॥ मन बच काय योग अनुसरे । पर उपदेश आप जो करै ॥ ५ ॥ परहिंसा अनमोद करत । चार कषाय विशेष धरत ॥ __ सकषायके सांपरायिक आस्रव होता है और अकषायके इर्यापथ आसव होता है । ६ भावविशेषसे ज्ञात अधिकरण वीर्य आदि समझने. चाहिये । " ये अधिकरणके भेद है। ८ कृतकरन - सरंभ । अभ्यास - समारंम । इन सबको परस्पर गुणा करनेसे १.८ मेद। मोवाधिकरणके होते है।
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तत्त्वार्थसूत्र
सर्गाचतुर्द्वित्रिभेदाः परम् ॥ ९ ॥ तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ॥१०॥
१२
दुःखशोकतापाक्रन्दनबधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसदेद्यस्य ॥ ११ ॥ भूतव्रत्त्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्यस्य ॥ १२ ॥ केवलि सीन तीन अरु तीन बखान । चार अंत मिलि हिंसाआन ||६|| दो भेद निर्वर्तना जान । चार भेद निक्षेप सु मान ॥ दो संयोग रु तीन निसर्ग | ये सब भेद सु आस्रव बर्ग ॥ ७||
सबैय्या तेईसा ।
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दर्शनज्ञान के धारककी अरु दर्शन ज्ञान बड़ाई न भावै । जानत हैं गुण नीकी तरह अरु पूछेंतैं गुण नाहि बतावै ॥ मागे न पोथी देय कभी विद्वान पुरुषसौ फेर सु राखै । गुणवानकों निर्गुण मूढ़ कहै सो दर्शन ज्ञान अवर्ण बढावै ||८|| दुख अरु शोक पुकार करै अरु माथा धुने अरु आंसू डारें । ताप करै परकारन होय सो जान असाता आश्रव पारै ॥ जीवन माहिं दयाल व्रती अरु वृत्तिनि दान देय सोभावें । अशुभ निषेधके हेतको उद्यम रक्षा करन छैकाय सुहावै ॥ ९ ॥ इंद्री निरोध सराग सु संयम चिंतन क्रोध करें नहिं लोभा ।
९ ये अवाधिकरण के भेद है ।
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भाषा छंद सहित। श्रुतसङ्घधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ॥ १३ ॥ कपायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य ॥ १४॥ बहारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः ॥ १५॥ माया तैर्यग्योनस्य ॥ १६ ॥ अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य ॥१७॥ खभावमार्दवं च ॥ १८॥ निःशीलव्रतत्वं च सर्वेषाम् ॥१९॥ सरागसंयमसंयमासंयमाऽकाम निर्जराबालतपांसि देवस्य ॥ २० ॥ सम्यक्त्वं च ॥ २१ ॥ योगवक्रताइह विध साताको बन्ध लखौ यह आश्रव बन्धकी जान सुशोभा। केवलज्ञानी अरु शास्त्र सुसंगति धर्म सु देवकी निंद करें हैं। दर्शनमोहनीकर्मको आश्रव होते सदा नर नाहिं डरै है ॥१०॥ कषायोदय परिनाम तीव्रतें चारितमोहनी कर्म बँधे है। बहु आरम्भ परिग्रह कारन नर्कके आश्रव फंद फसे है ॥ माया स्वभाव तिर्यचगती अरु अल्प परिग्रह मानुष जानौ । अल्पारम्भ रु कोमलभाव यहै सब आश्रव मानुष मानौ ॥१९ वैत शील रहित्यपनों सु लखौ गति सवको आश्रव होयसु वीरा। सैराग मुनी अरु आश्रवके व्रत जान अकाम सु निर्जर धीरा। तप अज्ञान रु सम्यक हू लख देवगतीको आस्रव नीरा ।
१३ संगति = सथ ।
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४
तत्त्वार्थस्त्र
।
विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ॥ २२ ॥ तद्विपरीतं शुभस्य ॥ २३ ॥ दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नताशीलव्रतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगो शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधिर्वैयावृत्त्यकरणमईदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्गिप्रभावनाप्रवचनवत्स लत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥ २४ ॥ परात्मनिन्दाप्रशंसे योगेनकी कुटिलाई कुवाद सु नाम अशुभको आश्रव तीरा ॥१२॥
अहँ जोगनकी सरलता, शास्त्र कहे तैं जान । आश्रव है शुभ नामको, या विध सूत्र बखान ॥१३॥
चौपाई। सम्यकदर्शन निरमल जान । तीन रतन जुत पुरुष बखाना ताकी विनय करै बहु भांति । शील विरत पालै चित शांति ॥१४ ज्ञानी योग निरंतर साध । भव भयभीत रहै निरवाध ॥ शक्ति समान दान तप सार । साधुपुरुषको विघन निवार ॥१५॥ सेवा औ सश्रूषा करै । सोई वैय्यावत अनुसरै । अरहत आचारज मनलाय । बहुश्रुति प्रवचन भक्ति कराय ॥१६॥ छ आवश्यक किरिया करै । हर्ष प्रभावनमैं जो धरै ।। करि सिद्धांतविर्षे जो प्रीति । यह षोढ़शभावनकी रीति ॥१७॥ |
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भाषा छंद सहित । सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ॥ २५ ॥ तविपर्ययो नीचैवृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥ २६ ॥ विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥२७॥ . इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्ष शास्त्रे षष्टोऽध्यायः ॥ ६ ॥ ____ हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्योविरतिब्रतम्॥१॥ जो नर ध्यावें मन बच काय । तीर्थकरपद आश्रव थायः ॥ पैरंगुण ढांक निंदा करैं । अपनो औगुन चित नहिं धरै ॥१८॥ अपनी थुती आप ही करें । नीचगोत्र आश्रव अनुसरै ॥ | निजे निंदा पर अस्तुति जान । अपने गुण आछादन मान॥१९/ पर औगुण प्रघटा नाहिं । पुनि उत्तमगुण प्रघट कराहिं ।। उंचगोत्रको आश्रव जान । ऐसो सूत्रमाहिं ब्याख्यान ॥२०॥
- सोरठा।
धर्मकार्यके माहिं, विघन करै संकै नहीं । आश्रव अशुभ लहाहिं, अंतराय दुखदायको ॥२१॥
दोहा। तत्त्वारथ यह सूत्र है, मोक्षशास्त्रको मूल | छटाध्याय पूरण भयो मिथ्यामतको शूल ॥२२॥
चौपाई। | हिंसा अनिरत चोरी जान । अब्रह्म और परिग्रह मान ।
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तत्वार्थसूत्र
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देशसर्वतोऽणुमहती ॥२॥ तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च ॥३॥ वामनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च ॥ ४॥क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पञ्च ॥५॥ शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्ष्यशुद्धिसधौविसंवादाः पञ्च ॥ ६॥ स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरीक्षणपूर्वरइन पांचौसे रहित जु होय। पंच विरत तसुनाम सु जोय ॥१॥ देशत्याग सो अणुव्रत जान । त्याग महाव्रत सरब निधान ॥ इन व्रत्तनकी इस्थिति कार । भावन पांच पांच निरधार ॥२॥ मन अरु बचन गुप्ति सुखकार। देख चलै अरु धेरै निहार ॥ खान पान बिधि निरख करेय । वृत्त अहिंसा पंच गिनेय॥३॥ को) लोभ भय हास्य विहाय । पुनि विचार बोलै सुखदाय॥ |हित मितकारी वचन सुहाय । सत्य भावना पंच गिनाय ॥ ४॥
सूनीगृह अरु ऊजर ठाम । वाश तहांको जान निकाम ॥ साधर्मीसों धर्ममझार । करै विवाद कदापि न जार ।। रोक टोक नहीं करै सुजान ।परोपरोधाकरण सु मान ॥५॥ भिक्षा लेय शुद्ध मनधार । भावन पंच अचौर्य निहार ॥
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भाषा छंद सहित।
तानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पञ्च ॥७॥ मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च ॥ ८॥ हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥९॥ दुःखमेव वा ॥ १० ॥ मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनयेषु ॥११॥ जगत्कायखभाइस्त्रीरागकथा अरु अंग । सुनै निरन्तर बढ़े अनंग ॥६॥ पूर्वभोग चिन्ता सुन जान । पुष्ठ अहार करै सुखमान ॥ संस्कार सब त्याग विचार । ब्रह्म भावना पांच निहार ॥७॥ मनको लगैं भले अरु बुरे । विषय पांच पच इंद्री खरे ॥ तिनमैं राग भाव तजिदेह । पंच भावना परिग्रह एह ॥८॥
साग्ठा। हिंसादिक सब पाप, करें नाश इस जगतमें । परभवमें संताप, देहिं निगोद रु नरकमें ॥९॥ होय सर्बदा दुक्ख, इन हिंसादिक पापते । जो चाहो अब सुक्ख, त्यागौ मन बच काय कर ॥१०॥
. चौपाई। सब जीवनमें मैत्री भाव । गुण अधिके लखि आनंद पाव ॥ दीन दुखीपर करुणाधार । धर्मविमुख मध्यस्थ निहार ॥११॥
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तत्त्वाथसूत्र
वौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥१२॥ प्रमत्तयोगात्लाणव्यपरोपणं हिंसा ॥ १३ ॥ असदभिधानमनृतम् ॥ १४ ॥ अदत्तादानं स्तयम् ॥ १५ ॥ मैथुनमब्रह्म ॥ १६ ॥ मूर्छा परिग्रहः ॥१७॥ निःशल्यो व्रती ॥१८॥ अगार्यनगारश्च ॥१९॥ अणुव्रतोऽगारी ॥२०॥ दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणा-- तिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ॥ २१ ॥ मारणान्तिकीं लेख संसार शरीर स्वभाव । चिंतन होय विरक्त स्वभाव ॥ वंश परमाद योग होय । जीवघात सो हिंसा सोय ॥१२॥
सवैय्या २३। असत्य भने सो झूठ कहो, विनैदीयो दान सो चोरी बखानो। मैथुन जान अब्रह्म सही, ममताको प्रसार परिग्रह मानो ॥ मिया माया निदान सु बर्जित, सोई व्रती निरशल्य कहानो॥ सो व्रत दोय प्रकार यती, घरै रहित व्रती घर सहित सु भानो॥१३॥ अनुव्रतधारक श्रावक हैं, दिगै देश प्रमान अनर्थको त्यागी॥ प्रोषध और समायिक धारक, भोगें भोग प्रमाण नुरागी ॥ चार प्रकार सुदानको दायक, इह विध सातौं शील सु पागी मेरेणके अंत सल्लेखन धारत, होय यती सम सो बढभागी ॥१४॥
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भाषा छंद महित |
सल्लेखनां जोषिता ॥ २२ ॥ शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतीचाराः ॥२३॥ व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ॥ २४ ॥ बन्धवधच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः ॥ २५ ॥ मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः ||२६|| स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः ॥ २७ ॥ पर
३९
चापाई ।
जिबानी में शंका करै । इह पर भव सुखवांक्षा धेरै ॥ रोगी मुनिकों देखि गिलान । मिथ्यादृष्टीगुण सनमान ॥१५ बचनद्वार ताकी युति करै । अतीचार पन समिति धेरै ॥ व्रत शीलनमें क्रम क्रम जान । पांच पांच जे कहे बखान ॥ १६ ॥ जीवन वांधे ताडे सोय । कान नाक छेदे जो कोय । मान अधिकतें भार जु धरे । अन्नपान अवरोधन करै ॥ १७ ॥ मिथ्याको उपदेश सु जान । गूढबात परको व्याख्यान ॥ झूठो लेख तनो विवहरै | परकी मूसधरोहर हरै ॥ १८॥ मंत्र पराय प्रघटै जोय । अतीचार पन सतके सोय ॥ चोरीको उपदेश सु देय । बस्तु चुराई मोल सु लेय ||१९||
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तरवाथसूज
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विवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीताप्परिगृहीतागमनानङ्गक्रीड़ाकामतीव्राभिनिवेशाः ॥ २८ ॥ क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिकमाः ॥२९॥ ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि ॥३०॥ आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः राजविरोध सु काज कराय । घाटि देय अरु बाढ़ि लहाय ॥ बस्तुखरीमें खोटी डार । व्रत अचौर्य पांच अतिचार ॥२०॥ पैरैविवाह कारण उपदेश । और कुशीलीइस्त्री वेश ॥ परइस्त्री व्याही जो होय । तथा और अन व्याही सोय ॥२१॥ तिनको मुख अरु अंग निहार । तथा अनंगक्रीडा निरधार तीव्र काम निज बनिता भोग। ब्रह्मचर्य अतिचार अयोग ॥२२॥ खेत और घर रूपो जान । सोनो पशु अरु अन्न बखान ॥ दासी दास रु कपड़ा आदि । इनके बहुत प्रमाण सु बाद ॥२३॥ अतीचार अपरिग्रह पांच । इह विध सूत्र कहो है सांच ॥ दिशि रु विदिशि उलंघन जान । ऊंचो नीचो क्षेत्र बखान ॥ क्षेत्रप्रमाण भूलकें जाय । मन मानो तसु लेय बढ़ाय ॥ अतीचार दिगव्रतके आंहिं । ऐसो कह्यो सूत्रके माहिं ॥२५॥
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भाषा छन्द सहित ।
॥ ३१ ॥ कन्दर्पकोत्कुच्यमौर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ॥ ३२ ॥ योगदुःषणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३३ ॥ अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३४ ॥ सचित्तसम्बन्धसम्मिश्राभिषवदुःपक्काहाराः परमित क्षेत्र बाहरी बस्त । लेना देना सब अप्रसस्त ॥ तसु वाशी सँग शब्द करेय । अपनी देह दिखाई देय ॥२६॥ पुदगल क्षेप सु चेत कराय । अतीचार देशवत आय ॥ हास्य करै अरु क्रीड़ा काम । यहै बात वहु कहै निकाम ॥२७॥ मतलब अधिक जु काज कराय । भोग उपभोग लोभ अधिकाय॥ अतीचार अनरथदंड जान । ऊपर तिनको करो बखान ॥२८॥ योगैकुटिल सामायिक माहिं । आदर उत्सव चितमें नाहि ।। मूलपाठ कछुको कछू पढे। खवर नहीं मन संसय बढे ॥ २९ ॥ अतीचर सामायिक जान। या विध सूत्र कह्यो व्याख्यान ॥ निजे नैननसो देखे विना। कोमल बस्तु बुहारिन किना ॥३०॥ कोई वस्तु उठावें नाहिं । पूजाबस्त्र न असन धराहिं ।।
उतसाहि। ये प्रोषध अतीचार लहाय ॥३१॥
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तत्वाधसूत्र॥३५॥ सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः॥३६॥ जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि ॥ ३७॥ अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गोदानम् ॥३८॥ विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः॥३९॥
इति तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥ सँचित बस्तु आहार सु देय । सचित मिलाय जुदा न करेय ॥ बस्तु सचित्त मिलो आहार । और पुष्ट रस जानो सार ॥ ३२ ॥ दुखकर पचै सु भुजै नाहिं। भोगुपभोग अतिचार कहांहिं॥ सचितमाहिं धारी जो बस्तु । और सचित ढांकी अप्रसस्त॥३३॥ परहस्ते मुनिभोजन देय । दाताके गुण मन न धरेय ॥ घरके काममाहिं फस जाय । मुनिभोजन बेरा विसराय ॥ ३४॥ आतिथिविभाग जान अतिचार । याही विध लख सूत्र मझार । जीवन मरण सु बाक्षांधार । मित्रनुराग सु पूर्व विचार ॥३५॥ पूरव भोगन प्रीति कराहिं । आगेकी वांक्षा उरमाहिं ॥ अतीचार सल्लेखन जोय । दृढ़ता पूर्वक जानो सोय ॥ ३६॥
पद्धरी छन्द । उपकार निमित्त सु दान देय। तसुनाम दान सो जान लेय ॥ सैरधान भक्ति अरु पात्र लेख । ता दान तनो जानो विशेष॥३७॥
दोहा । तत्त्वारथ यह सूत्र है, मोक्षशास्त्रको मूल । अध्याय सप्तमो पूरण भयो, मिथ्यामतिको शूल ॥३८॥
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भाषा छंद सहित । मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ॥ १॥ सकषायत्वाजीव कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः ॥२॥ प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधयः॥३॥ आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्ना मगोत्रान्तरायाः ॥४॥ पञ्चनवद्यष्टाविंशतिचतुर्दिच
छन्द विजया तथा सवैय्या। मिथ्यात पंच अरु बारह अविरत पंद्रह प्रमाद कषाय पचीशा। योगके पंद्रह भेद लखौ यह पांच हैं बन्धके भेद मुनीशा ॥ सहित कषाय सु जीव गहे क्रम रूपी पुदगल योग सुरीशा । ताहीको नाम सु बन्ध कहो त्रैलोक्यपती अदभुत जगदीशा॥१॥
चौपाई। सो बन्धन है चार प्रकार । प्रकृतिबन्ध इस्थिति निरधार ॥ अनूभाग अरु तुर्य प्रदेश। या विध सूत्रमाहिं लख वेश ॥२॥ पहिले विधिको है जो भेद । ज्ञानावर्णी पांच विभेद ॥ दर्शनआवर्णी नव जान । वेदनि दोय प्रकार बखान ॥३॥ अट्ठाईस मोहनी वीर । आयु चार परकार सु धीर ॥ नाम कर्मके हैं व्यालीस । गोत्र दोय भाषे जगदीश ॥ ४ ॥ अंतरायके पांच निहार । इह विध कर्म आठ परकार ॥
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TLAMHRIRADIA
s abaidation
तत्त्वार्थसूत्र
त्वारिंशद्धिपञ्चभेदा यथाक्रमम् ॥५॥ मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानाम् ॥ ६॥ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धयश्चा७॥ सदसदेद्ये ॥८॥ दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्यात्रिदिनवषोडशभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वत
दोहा। पैन नव दो अठवीस चउ, व्यालिस दौ अरु पांच । आठ भेदके भेद जे, सत्तानव है सांच ॥ ५ ॥
चौपाई। मैति श्रुति अवधि मनपर्यय जान । केवल ज्ञानावर्णी मान ॥ चक्षु अचक्षु अवधि लखि लेउ। केवल दर्शन अवरन देउ॥६॥ भेद पांचमो निद्रा जान । निद्रानिद्रा छटो बखान ॥ प्रचलाभेद सातमों धीर । प्रचलाप्रचला अष्टम वीर ॥७॥ स्त्यानगृद्ध सो नवमों जान । दर्श अवर्णी भेद बखान ॥ सांता और असाता दोय । यही वेदनी भेद सु होय ॥ ८ ॥ दर्शमोहनी तीन प्रकार । चारित्रमोहनी दो निरधार ॥
पद्धरी छन्द । अकषायवेदनी नौ प्रकार । अरु सोलह भेद कषाय धार । सम्यक प्रकृती मिथ्यात जान । अरु मिश्र मिथ्यात कषाय मान॥९॥
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भाषा छंद सहित । दुभयान्यकषायकषायो हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सा स्रीपुनपुंसकवेदा अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोभाः ॥९॥ नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि ॥ १० ॥ गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणबन्धनसङ्घातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगन्धवर्णानुपूर्व्यागुरुलघूपघातपरघातातपोद्योतोच्छासविहायोगतयःप्रत्येकशरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययश कीर्तिसेतराणि तीर्थकरत्वं च॥११॥ रति अरति हांस्य अरु शोक चीन । भय जान जुगुप्सा वेद तीन॥ जा उदय नहिं सम्यक्त होय । चउ अनन्तान बन्धीय जोय॥१०॥ जा उदय नहिं व्रत देश धार । सो अप्रत्याख्यानी असार ॥ जाउदये महाव्रत नाहिं होय । लख ताहि प्रत्याख्यानी सुजोया११ इह यथाख्यात चारित्र भाव। संज्वलन उदयें इनको अभाव ॥ इक एक भेद मो चार चार । कुह मान लोभ माया निहार ॥१२॥ लेख आयुकर्म के चार भेव । नारक तिर्यंच मनुष्य देव ॥ आउदय भवांतर जीव जाय। सो जानो गतिको भेद भाय ॥१३॥ जाउदयें इक इंद्रियादि पांच । सो ग्रहै जीव जा जान सांच ॥
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तत्त्वार्थसूत्रउच्चैर्नीचैश्च ॥१२॥ दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम्॥१३॥ आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः ॥१४॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥१५॥ लख पांच शरीर औदारकादि । निरमाण रचे जो चक्षु आदि॥१४॥ बन्धन पुदगलको मेल जान । संघात सु दृढती संधि मान ॥ संस्थान कहो सम चतुस्थान । संहनन सूत्रमें छै बखान ॥१५॥ सपरसके भेद सु आठ वीर । रस पांच प्रकार सु लखौधीर॥ दो गन्ध वरणके पांच भेद । पूर्वीय अगुरलघुअप सु खेद॥१६॥ परघात लखौक्तप अरु प्रकाश। उस्वास गमन जानो अकाश। उपभोग देत लख इक शरीर । जानो सु प्रत्येक शरीर वीर ॥१७॥ जस सुभग सु सुस्वर शुभ स्वरूप । सूक्षम पर्याप्त सु थिर अनूप ॥ आदेय स्वयश कीरति निहार।लख इतर सहित दश प्रकृतिसार तीर्थकर गोत्र करो विचार । यह नामकर्म व्यालीस सार ॥ ऊँचो अरु नीचो गोत्र दोय । अब अन्तरायको भेद जोय॥१९॥ मुनिदान लोभ भोगोपभोग । बीर्यातराय पद पांच जोग॥ ज्ञानावर्णी सों तीन जान । अरु अन्तरायको जोग मान॥२०॥ थिति कोड़ा कोड़ी तीस लेउ। सेनी पंचेंद्रिय परयाप्त भेउ । सत्तर कोडा कोडी निहार । तिथि मोहनि कर्म हिये सुधार॥२१॥ * अपघात । + आतप । उद्योत ।
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भाषा छंद सहित।
विंशतिर्नामगोत्रयोः ॥१६॥ त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥ १७ ॥ अपरा द्वादशमुहूर्तावेदनीयस्य ॥ १८ ॥ नामगोत्रयोरष्टौ ॥ १९ ॥ शेषाणामन्तर्मुहूर्ता ॥ २०॥ विपाकोऽनुभवः ॥ २१ ॥ स यथानाम ॥ २२ ॥ ततश्च निर्जरा ॥ २३ ॥ नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्र
सोरठा।
कोडा कोडी वीस, नाम गोत्र इस्थिति कही। आयुकर्म तेतीस, थिति उत्कृष्टी जानियो ॥ २२ ॥
सबैय्या। . जर्धन्य थितीहै बार मुहूरत, वेदनिकर्म कही श्रुतमाहीं । भौम रु गोत्रकी आठ मुहूरत, शेषेकी अन्त मुहूर्त कहाई॥ कर्मउदय सविपाक कहो, सोई अनुभव नामको भावबतायो। यथानाम विधि अनुभव सोई, सोई फल श्रुतमें इमि गायो॥२३॥ जामउदयको भोग भयो, इक देश ता कर्मको नाश कहायो। सेव कर्म प्रकृतिको कारण है, सब काल सबर्गी योग बतायो । मनबचनकायके योग विशेषत, सूक्षम कर्म प्रदेश घनेरे । आत्मप्रदेश अकाश विषै, हुयइस्थिति जान सु नेम यह रे॥२४॥
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तत्त्वार्थसूत्र
देशाः ॥२४॥ सद्धेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥२५॥ अतोऽन्यत्पापम् ॥ २६॥
___ इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रेऽष्टमोध्यायः ॥ ८॥ ____ आस्रवनिरोधः संवरः ॥ १ ॥ स गुप्तिसमितिध
उनुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः ॥ २ ॥ तपसा निर्जरा च॥३॥ सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥ ४ ॥ ई-भाप्रेषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः॥५॥ उत्तमक्षमामा
वार्जवशोचसत्यसंयमतपस्त्यागाऽकिञ्चन्यब्रह्मचर्या-- सब आतमके परदेश विषै, है नंत अनंत प्रदेश सुकर्मा । शुभ आयु नाम सु गोत्र कहो, अरु पुण्य सु साता वेद सुकर्मा। इतने छोड़ सु पाप कहे, इह सूत्रकी रीति लखौ भ्रम हर्ता । अध्याय सु अष्टम पूर्ण भयो, तत्त्वारथ सूत्र सु मोक्षको कर्ता ॥२५॥
___ छंद मशोक पुष्पमंजरी। आस्रवको निषेध सोई संबर बतायो गुरु,
गुपति समिति धर्म अनुप्रेक्षा जानिये । वाइसपरीषहसहित शुभचारित्र जान,
द्वादशप्रकार जैन तप यों बखानिये ॥
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भाषा छंद सहित। णि धर्मः ॥ ६ ॥ अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्त्वा ऐसे निर्जरा और संवर सु जान योग,
योगको निरोध सोई गुप्ति भी प्रमाणिये । सुमतिके भेद आगे कहत हों सो तौ सुघर, आगमके अनुसार सब रीति मानिये ॥१॥
चौपाई। पृथिवी निरखि गमन जो करै । इर्यासमिति चित सो धरै ॥ हित मितिकारी बचन रसाल । बोलै भाषासमिति विशाल ॥२॥ निरख परख आहार जु लेय । समिति एषणा हृदयं धरेय ॥ धरै उठावें भूमि निहार ।निक्षेपन आदानि विचार ॥३॥ ममता काय तजे निरधार । ऐसें समिति पांच विध सार ॥ कर्कश त्याग बचन बध बन्ध । उत्तमक्षमा सु है गुण खंध ॥४॥ कोमलता मार्दवको नाम । जान सरलता आर्जव धाम ॥ सत्य बचन जगमें प्रख्यात । शौच त्याग परवस्तु कहात ॥५॥ संयम रक्षा है षटकाय । इंद्रीपांच निरोध कराय ॥ अनशनादि तप वारह सार । चार दान धनत्याग निहार ॥६॥
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तत्त्वार्थसूत्रनुचिन्तनमनुप्रेक्षाः॥ ७॥ मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिपोढव्याः परीषहाः ॥ ८ ॥ क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमसकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयानालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाऽज्ञानाऽदर्शनानि ॥ ९॥ सूक्ष्मसाम्परायच्छद्मस्थवीतरागयोश्चआकिंचन निरपरिग्रह वीर । ब्रह्मचर्य मैथुन तजि धीर ॥ 'यहविधि दशविध धर्म निहार। कहो सूत्रमें सब निरधार ॥७॥ छिनभंगुर सो अनित बखान । अशरण कोउ शरण नहिं जान॥ भ्रमण चतुर्गति है संसार । सुख दुख भोगत एक निहार ॥८॥ जीव अन्य अन्यत्व विचार । वपु अशौच पुनि है निस्सार ॥ आगम कर्म सु आस्रब जान । कर्म रुकेपर संवर मान ॥९॥ एकदेश करमनि क्षय होय । निरजर नाम कहावै सोय ॥ | लोकविचार सु लोकाकार।दुर्लभ ज्ञान जान मन धार ॥१०॥ तीनरतन दशधर्म स्वभाव । द्वादशानुप्रक्षा मन लाव ॥ मोक्षमार्ग च्युत नहिं होय। निर्जर कर्म करै दृढ़ सोय ॥११॥ बाईस परीषह इह विध जान।ळुधा तृषा अरु शीत बखान ॥ उष्ण और मच्छर उपसर्ग ।नगन अरति अरु इस्त्री बर्ग ॥१२॥
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भाषा छंद सहित ।
नभिसार-शान
સ્થા
શાસન પદ્ધ ભગ तुर्दश ॥ १० ॥ एकादश जिनका १२॥ वादरसाम्प राये सर्वे ॥ १२ ॥ ज्ञानावरणे नमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ ॥ १४ ॥ चारित्रमोहेनाग्न्यारति स्त्रीनिषद्याक्रोशयाच्ञासत्कारपुरस्काराः गमनासन शय्या परधान । बच कठोर बध बन्धन जान || जाच अलाभ रोग सु निहार । तृण कंटक इस्पर्श विचार ||१३|| नहिं मैलो मन मलिन शरीर । आदर और अनादर वीर || बहु तप कियो ज्ञान नहिं भयो । ऐसे ही दर्शन नहिं थयो ॥ १४ ॥ इनको विकल्प मन नहिं लहैं । सो बाईस परीषद सह ॥ सूक्ष्म साम्पराय छदमस्त | चौदह तीन सु गुणहिं प्रसस्त ||१५|| छदमस्त वीतरागको भेद । द्वादश गुनधाने मुनिवेद || चौदह होंय परीषह वीर । श्रुतमें ऐसो भाषों धीर ॥ १६ ॥ जिनसंज्ञा तेरमगुनथान । इनके ग्यारह नाहिं निदान || छेटे सातवें अठयें मान । और नवममें सरत्र सु जान ||१७|| ज्ञानावर्णी कर्म सुभाय । प्रज्ञा अरु अज्ञान कहाय ॥ अन्तराय अरु दर्शनमोह । होय अलाभ अदर्शन दोह ॥ १८ ॥
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छंद विजया ।
चरित्रमोह उदयतें लखौ नगनत्व अरति अरु इस्त्री निषध्या ।
શાળાક
શ્રી વિજય
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तस्वायंसूत्र
। ॥ १५॥ वेदनीये शेषाः ॥ १६ ॥ एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नेकोनविंशतेः॥१७॥सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराययथाख्यातमिति चारित्रम् ॥ १८॥ अनशनावमोदर्यवृत्तिपरिसङ्ख्यानरसपरित्यागविविक्तशग्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः याचना करकस बचन कहो परशंसा अस्तुति सात सु हृद्या ॥ वेर्दनि कर्मउदयतें गिनो सब ग्यारह शेष परीष बताई। एक समय इक जीव विर्षे इक आदि उनीश परीष जताई ॥१९॥ सौंमायिक व्रत्त त्रिकाल सुनो उत्कृष्टि घड़ी छह २ सुकहाई ।। सब जीवविषै सम भाव करें तजि आरति रौद्र सु भाव लहाई । गुणमूल अट्ठाइस माहिं लगौ कोउ दोष मु ताहिं उथापहिं ज्ञानी॥ छेदोपस्थापन नाम कहो लख सूत्र विचार सु या विध ठानी।॥२०॥ हिंसादिक त्यागमें निर्मलता परिहार विशुद्धी नाम कहायो। सूक्षमसाम्पराय कहु ताको भेद सु सूक्षम लोभ लहायो ।। यथाख्यात चारित्र सुनो सो आतम सोई सु निरमल थायो। या विध पांच प्रकार लखौ शुभ चारित नाम सु सूत्र में गायो॥२१॥ | उपवाशी अल्प अहारी है इक दो घर गिन आहार लहा।।
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॥१९॥प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ॥२०॥ नवचतुर्दशपञ्चद्विभेदा यथाक्रम पारध्यानात् ॥२१॥ आलोचनाप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनाः ॥ २२ ॥ ज्ञानदअनशन अवमौदर्य कहो अरु व्रतपरिसंख्या नाम कहावै ॥ छोडें रस परित्यागी हैं घरसूनो गुफा निरजन वनवाशा । कायकलेश शरीरको कष्ट दिये इह षट तप वाहर परकाशा ॥२२॥ अब अन्तरंगके भेद सुनो षट तिनसों वसुविध कर्म डरो है। दोषनिवारन चित्तकी शुद्धता प्रायश्चित तसु नाम धरो है॥ गुणगौरव आदरभाव करें सो विनय वृत्त साई विनय भरो है। रोगसहित मुनि तिनकी सेवा बैय्यबत तसु नाम परो है ॥२३॥ स्वाध्यायकर ज्ञान बढावत आतम हित चितमाहिं धरो है। तजि संकल्प शरीर है मेरो यह व्युतसर्ग सु नाम परो है।। तत्त्वको चिंतन ध्यान कहो षट भेद सु तप अन्तरंग कहो है। भेदै नवौ चतु दश पन दो तपध्यान सु पहिले पहिल ठयो है॥२४॥
चौपाई। निसकपटी गुरुआगे कहै । आलोचन तसु नाम सुलहै।
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तस्वार्थ सूत्र
र्शनचारित्रोपचाराः ॥ २३ ॥ आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्ष्यग्लानगणकुलसङ्घसाधुमनोज्ञानाम् ॥ २४ ॥ वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः ॥ २५ ॥ बाह्याभ्य
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सामायिक में दुष्कृत होय । करै शुद्ध प्रतिक्रमण सु जोय ||२५|| आलोचनं प्रतिक्रमन सु दोय । तदुभय नाम कहावै सोय ॥ हेयाय विचार सु होय । ताको नाम विवेक सु जोय ॥ २६ ॥ मनबचकाय त्याग व्युत्सर्ग। बारह विध तप जान निसर्ग ॥ उपवाशादि करण है छेद ! संघत्याग परिहार सु भेद ॥ २७ ॥ इस्थापन दृढ़ता है धर्म । नौ विध कहो प्रायश्चित मर्म ॥ देश ज्ञान चारित आचार । इनको विनय शुद्ध मनधार ||२२|| व्रत आचर्न करे आचार | पढ़ें पढ़ावै पाठक सार || उपवाशादि सुं तप है जान | शैक्ष शास्त्र अभ्यास करान ||२९|| रोगादिक पीडित सु गिलान । मुनिसमूह सोई गण मान ॥ शिष्यसमूह दीक्षित आचार । सोई कुलको अर्थ निहार ॥३०॥ मुनि यति ऋषि अरु साधू चार । येही संघ चार परकार । चिरदीक्षित सो साधु बखान | अरु मनोज्ञ माननिय मान ॥ ३१ ॥ ब शास्त्र करें व्याख्यान । बाचना नाम तासुको जान ||
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भाषा छंद सहित |
न्तरोपध्योः ॥ २६ ॥ उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमाऽऽन्तर्मुहूर्तात् ॥ २७ ॥ आर्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि ॥ २८ ॥ परे मोक्षहेत् ॥ २९ ॥ आर्तममनोज्ञस्य सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः ॥ ३० ॥ अरु संदेह निवारै सोय । नाम प्रच्छना तसुको होय || ३२ ॥ बारम्बार सु तत्वविचार | अनुप्रेक्षा कहिये निरधार ॥ शब्द उचार सु शुद्ध कराय । आम्नाय तसु नाम कहाय ॥३३॥ पर उपकार धर्म उपदेश | इहविध पांच प्रकार भनेश ॥ दो" परकार परिग्रह जान । वाहर भीतरको परिमान ॥ ३४ ॥ धौरी बज्र वृषभ नाराच । और बज्रनाराच नराच ॥ ऐसो मुनि इक आम दर्व । तथां और कोऊ निर्गर्व ॥ २५ ॥ लै आलम्बन चिंता छोड़ | मनको रोकै ध्यान सु मोड़ ॥
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अन्त मुहूरतकाल सु ध्यान । उत्तम मध्यम जघन बखान ॥ ३६ ॥ आरति रौद्र अशुभ दो ध्यान । धर्म शुकल शुभजान महान || | धर्म शुक्ल शिवहेत दु ध्यान । आर्त्त रौद्र भक्कारण जान ॥ ३७॥ अनिष्ट वस्तु संयोग जु होय । तासु नाश चित चिंता सोय || अनिष्टसंयोग सु आरति ध्यान । इष्टवियोग आरति चित मान३८
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तत्त्वार्थसूत्रविपरीतं मनोज्ञस्य ॥३१॥ वेदनायाश्च ॥३२॥ निदानं च ॥३३॥ तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥३४॥ हिंसाऋतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः३५ आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम् ॥३६॥ शुक्ले चाये पूर्वविदः ॥३७॥ परे केवलिनः ॥३८॥ पृथकत्वैमनोज्ञ बस्तुको चिंतन करै । रोगनाश चिंता मन धरै ॥ भोगै अनागति कांक्षा जान।सो वह जानो आरति ध्यान ॥३९॥ पं. चतुर षष्टम गुणथान । ये सब आरति ध्यान बखान ॥ प्राणनाश अरु चोरी झूठ । विषयरक्षना चिंतै मूठ ॥४०॥ रौद्रध्यान इह चार प्रकार । प्रथम आदि चौथे गुण धार ॥ पंचम गुणवर्ती तक होय । इह विध रौद्रध्यान है सोय ॥४१॥ तत्वविचारै श्रुत अनुसार । आज्ञाविचय विचयमनधार ॥ करमन नाश विचार करेय । अपायविचय सो नाम कहेया॥४२॥ कर्मउदयको जान विचार । नाम विपाकविचय मनधार ॥ तीनहिंलोक विचार निहार । सो संस्थानविचय मनधार ॥४३ ॥ या विध धर्मध्यान पद चार । सूत्रमाहिं तिन मर्म निहार ॥ शुक्तध्यानके पाये दोय । धर्मध्यानके पहिले जोय ॥ ४४ ॥ होय सकलश्रुत केवलि जान । "पिछिले केवलज्ञानी मान ॥
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माषा छंद माहित। कत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवर्तीनि ॥३९॥ त्र्येकयोगकाययोगायोगानाम् ॥४०॥ एकाश्रथेसवितर्कवीचारे पूर्वे ॥४१॥ अवीचारं द्वितीयम् ॥ ४२ ॥ वितर्कः श्रुतम् ॥ ४३।। वीचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः ॥४४॥ सम्यग्दृष्टि श्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनपृथक्त्ववितर्क सु पहलो जान । दूजो एकवितर्क वखान॥१५॥ सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती जान । तीजो भेद शुकलको मान ॥ व्युपरतक्रियानिवृत्ति भेव । चौथो शुक्लध्यान लख लेव ॥१६॥ तीनयोगवारेके जान । प्रथम शुकलकी प्रापति मान ॥ एकयोगवारेके नेम। द्वितिय शुकल प्रापति है तेम॥१६॥ काययोगवारेंकें होय । तीजा क्रिय प्रतिपाद सु जोय । चौथा शुकल अयोगी जान। यह परिपाटी सूत्र प्रमान ॥ १७ ॥ सैबीतर्क अवितर्क विचार । सकल सु श्रुतज्ञानी मुनि धार ॥ पहिले यह दो शुकल निहार । अवीचारे दूजे निरधार ॥५०॥ नौम वितर्क सु श्रुत पहिचान । या विध सूत्र करै व्याख्यान अर्थविचार पदारथ जान। व्यंजन बचन शब्द सो मान।।५१॥ मनवचकाययोग चित धरै । इकपद दुजो अनुसरै ॥ .
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तत्त्वार्थसूत्रमोहलपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः॥४५॥ पुलाकवकुशकुशीलनिम्रन्थस्नातका निम्रन्थाः॥४६॥ संयमश्नुतप्रतिसेकरै शब्दतै शब्दविचार । और योग” योगनिहार ॥ यही संक्रमन जानो वीर । टीका सूत्र लखौ मन धीर ॥५२॥
छंद विजया। मियादृष्टीते सम्यक्ती लख तातें सु देशव्रतीकें कही है। संयमी सकल महा सुव्रती तातें अनंतवियोज कही है ॥ तातें दर्शनमोह खिपावत तातें उपशम समिकितधारी ॥ इन” लख उपशांतिमोहके एकादश गुणथान विहारी ॥५३॥ तिनतें क्षपक सु श्रेणिके धारक इनतें क्षीन सु मोह कहै हैं । इनतें लख जिनकेवलिके दशथान सु कर्म जे निर्जर हैं हैं। निर्जरा होत असंख्यात गुणी गुणश्रेणी रूप समय प्रति जानो। ताको क्रम सूत्र कहो ताभांति सुटीका देख या भांति बखानो॥
चौपाई। सम्यकदर्शनधारी मुनी । पांच प्रकार संज्ञा तिन भनी । परिग्रह रहित कहे निरग्रंथ । तिनके सुनो भेद अरु पंथ ॥
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भाषा छंद सहित । वनातीर्थलिङ्गलेश्योपपादस्थानविकल्पतःसाध्याः॥४७॥
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे नवमोऽध्यायः ॥९॥ उत्तरगुण भा0 नहिं भाव । कोऊ क्षेत्रकालके भाव । व्रतकी पूरणता नहिं होय । तातें नाम पुलाक जु सोय ॥ दृढता मूलगुणनके माहिं । राग उपकरण शरीर कराहिं ॥ वकुशनाम जगत विख्यात । भेद कुशील लखौ दो भांति ॥ प्रतिसेवन सु कषाय कुशील । उत्तरमूल धरै गुण शील ॥ पुस्तक शिष्य कमंडलु देह । इनमें राखै भाव सनेह ॥ उत्तरगुण सु विराधन करै । प्रतिसेवन तसु नाम सु धेरै ॥ हैं अधीन संज्वलन कषाय । नाम कुशील कषाय कहाय । जाके केवलज्योति तुरंत । अंतमुहरतके उपरंत ॥ सो निर्गथ जगतके भान । इसनातकको सुनो बखान ॥ कर्मघातिया नाशे सबै । होय सयोगकेबली तबै ॥ चारित्र हानिवृद्धिसों होय । ऐसे पांच भेद मुनि जोय ॥ संयम आदि आठ अनुयोग। तिनकर साधन सब मुनियोगn उत्तम श्रुति दश पूरब कही । केवलज्ञान विराधन सही ॥ सब तीर्थकरवारेमाहिं । पांचौ मुनि निग्रंथ कहांय ॥
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तस्वार्थ सूत्र
मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ॥ १ ॥ बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्म्मविप्रमोक्षामोक्षः || २ || औपशमिकादिभव्यत्वानां च ॥ ३ ॥ अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः || ४ || तदनन्त
जान भावलिंगी व्यवहार । पांचौको सौ है आचार || लेश्या ओ उपपाद स्थान । इनतें मुनि सब पृथक् बखान ॥ दोहा |
तत्वारथ यह सूत्र है, मोक्षशात्रको मूल ।
नवम अध्याय पूरण भयो, मिध्यापतिको शूल ॥
सवैया |
लेख मोहनि कर्म को नाश भयो, अरु ज्ञान दर्श आवनीं जानो । अन्तराय इन चार के क्षयतें, केवल ज्ञान सु होत बखानो बंध हेतु मिध्यादि कह, तिनको सु अभाव भली विधि मानो । निर्जरकर्म समस्त खिरे, सो मोक्षको मूल सो मोक्ष कहानो ॥
पद्धरी छन्द ।
उपशामक आदि भव्यत्व अंत । जे चार भाव क्षय मोह तंत और अन्य भाव क्षय सबै होंय । केवल सम्यक्त रु ज्ञान जोय२
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भाषा छंद माहित।
रमूघ गच्छत्यालोकान्तात् ॥ ५॥ पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद्वन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच ॥ ६॥ आविद्धकुलालचक्रवद्यपगतलेपालम्बूवदेरण्डबीजवदमिशिखा वच्च ॥७॥ धर्मास्तिकायाऽभावात् ॥ ८॥क्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितजानावगाहना
केवलदर्शन सिद्धत्व जान । इन भेदन मोक्ष लखौ सुजान॥ यह जीव करमक्षयके अनंत । ऊंचेको जोय सु लोक अंत३ जिर्य ऊर्द्ध गमनको निमित जान। पूरब प्रयोग सो चित्त ठान ॥ फिर कर्मयोग रहित मान। अरु कर्मबंधके क्षय बखान ॥४॥ अध ऊर्ध्वगमनको भाब जोय। जे निमित सूत्र भाषो है सोय॥ लखकर कुम्हारकी चक्ररीति । पूरब प्रयोग जानो सुमीत ॥५ कर लेप तोमरीपै सु भार । जल माहिं होय ताको निखार ॥ तव लेपरहित ऊपर तिराय । त्यों ही संगति गत कर्म भाय॥ बन्धन टूटत एरंडबीज । ऊपर उछलत महिमा लस्त्रीज ॥ लख अगिनिशिखा ऊपर विहार । यों कर्मबंधको क्षय निहार ॥७ धर्मास्तिकायको लख सुभाय । आकाश लोक आगें न जाय ॥
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तत्वार्थसूत्रन्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः॥९॥
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे दशमोऽध्यायः ॥१०॥ व्यवहार रूप आरज सुक्षेत्र । अरु काल चतुर्थम लख पवित्र॥८ मानुषगति लिंग पुलिंग जान। तीर्थकर गणधर सुगुण खान॥ अरु यथाख्यात चारित्र धार । निजशक्ति जान प्रति शुध निहार | परके उपदेश सु बुद्धि होय । जे लहैं मोक्ष संशय न कोय॥ मतिज्ञान आदि इस्थिति निहार । फिर केवलज्ञान लहै सुसार१० शत पांच धनुष उत्कृष्टि देह । अरु जघन हाथ त्रय अई तेह ॥ उत्कृष्टि समय छैमास जान । अरु जघन समय सो एक मान लख जघन समय इक सिद्ध होय। उत्कृष्टि समय शत अष्ट जोय॥ अल्पख बहुल सु भेद जान । इम साधन सिद्ध समूह मान १२
दोहा। तत्वारय यह सूत्र है, मोक्षशास्त्रको मूल। दवाध्याय पूरण भयो, मिथ्यामतिको शूस ॥१३॥
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भाषा छंद सहित। अब मागे मूलसूत्र अनुसार भाचार्य उमास्वामी वा भाषाकार
क्षमा प्रार्थना करै हैं। अक्षरमात्रपदखरहीनं व्यञ्जनसन्धिविवर्जितरेफम् । साधुभिरत्र मम क्षमितव्यं को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे ॥१॥
दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्त्वार्थे पठिते सति । फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनिपुङ्गवैः ॥ २ ॥ तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृद्धपिच्छोपलक्षितम् । वन्दे गणीन्द्रसंजातमुमास्वामिमुनीश्वरम् ॥ ३॥
दोहा। स्वर पद अक्षर मात्रिका, जानो नहीं विराम । व्यंजन संधि रु रेफको, नहिं पहिचानो नाम ॥१॥ क्षमौ साधु मों अधमकों, धारौ क्षमा महान । शास्त्र समुद् गम्भीरको, किनि अवगाहौ जान ॥३॥
चौपाई। तलारथ इस अध्याय माहिं । भाषों मुनिपुंगव शक सुनाहिं॥ जो नर भाव धारि यह पढे । तासु उपास सु फल लहि बढे ॥३॥
दोहा। . तत्त्वारथ इस सूत्रके, कर्ता उमामुनीश । गृद्धपिच्छ लक्षित सुलख, बन्दी खामिन ईश ॥
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तस्वार्थसूत्रअध्या पहिले चारलौं, पहिलो जीव बखान । पंचम अध्याये विर्षे, पुदगल तत्त्व बखान ॥५॥
आश्रव छ? सातमें, अष्टम बन्ध निदान । नवमें संवर निर्जरा, दशमें मोक्ष महान ॥६॥ वर्णन सातौ तत्त्वको, दश अध्याए माहि। यथाशक्ति अवधारियो, कियो सुनो शक नाहिं ॥७॥ धारनकी जो शक्ति नहिं, सरधा करियो जान । सरधावान सु जीवडा, अजर अमर हू मान ॥८॥ तपकरना व्रतधारना, संयम शरण निहार । जीवदया व्रतपालना, अन्त समाधि सुधार ॥९॥ छोटेलाल या विध कहैं, मनबचतन निरधार । चारोगति दुखमेटिकैं, करै कर्मगति छार ॥१०॥
कविनाम ठाम वर्णन।
दोहा। जिला अलीगढ जानियों, मेडू ग्राम सु ठाम । मोतीलाल सु पूत हौं, छोटेलाल सु नाम ॥१॥ जैसवार कुल जान मम, श्रेणी बीसा जान । बंश इक्ष्वाक महानमें, लयो जन्म भुवि आन ॥२॥
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भाषा छंद सहित। काशी नगर सु आयकैं, शैली संगति पाय । सबकों हित सु विचारक, भाषा सूत्र कराय ॥३॥ उदयराज भाई लखौ, शिखरचंद गुणधाम । तिनप्रसाद भाषा करी, भाषासूत्र सु नाम ॥४॥ छंद भेद जानो नहीं, और गणागण सोय । केवल भक्ति सु धर्मकी, बसी सु हृदयें मोय ॥५॥ ता प्रभाव या सूत्रकी, छंद प्रतिज्ञा सिद्धि । भाई भविजन शोधियो, होबै जगत प्रसिद्धि ॥६॥ मंगल श्रीअरहंत हैं, सिद्ध साधु वृष सार। तिननुति मनबचकायकें, मेटौ विधन विकार ॥७॥ छन्दबन्ध श्रीसूत्रके, किये शुद्ध अनुसार । मूल ग्रंथकौं देखकर, श्रीजिन हृदयें धार ॥८॥ कुआरमासकी अष्टमी, पहिलो पक्ष निहार । अडसठ ऊन सहस्र दो, सम्बतरीति विचार ॥९॥ जैसी पुस्तक मो मिली, तैसी छापी सोय । . शुद्ध अशुद्ध जु होय कहुँ, दोष न दीजै मोय ॥१०॥ ..इतिश्रीभाषा तत्वार्थसूत्र छंदबंध संपूर्ण ।
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भद्रबाहु चरित्र संस्कृत हिन्दी अनुवाद
सहित। इसमें अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामीका चरित्र है तथा श्वेताघर और ढूंढिया मतकी उत्पत्तिका वर्णन है । मूलग्रंथ आचार्य रत्ननंदिका बनाया हुआ है और भाषानुवाद पं. उदयलाल काशलीवाल ने किया है। मूल श्लोक नीचे छोटे अक्षरोंमें और भाषा ऊपर मोटे अक्षरों में दी है । शुरू में दिगम्बरों और श्वेतांबरोंकी प्राचीनता अर्वाचीनताके | विषयमें २२ पृष्ठमें खुलासा किया है। न्योछावर चौदह आना मात्र ही है।
पंचकल्याणक पाठ भाषा। इसमें चौवीस तीर्थंकरोंकी समुच्चय एक और गर्म, जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष, पांचौ कल्याणककी पांच पूजा न्यारी २ हैं, जिनमें एक २ पूजनमें चौवीस २ अर्घ हैं, जिनके विषे भगवान के पंचकल्याणककी तिथियां और माता पिता तथा कल्याणक नगरियोंके नाम दिये गये हैं । इस पाठके कर्ता कवि बखतावरलालजी हैं । इनकी कविता कैसी मनोहर है इसके लिखनकी आवश्यकता नहीं, क्योंकि इनके बनाये जिनदत्तचरित्र, कथाकोश इत्यादि ग्रंथोंको जिन्होंने पढ़ा होगा वे स्वयं समझ लेवेंगे । न्यो० छै आना मात्र ही है। अन्यपुस्तकोंके लिये हमारा सूचीपत्र मंगाकर देखें
पता-बद्रीप्रसाद जैन-बनारस सिटी।
Hanuman
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________________ उन्न्क न्छन चारुदत्तचरित्र भाषा चौपाई बंध / पाठकगण ! जिस चारुदत्त सरीखे महापुरुषकी कथाके प्रेमी # सज्जनगण अनेक प्रयत्न करने पर भी लेखक आदिके अभावसे चारुदत्त चरित्र नामक पुस्तकको नहीं प्राप्त कर सक्ते थे, यदि प्राप्त भी कर सके हों तो उनको शुद्ध नहीं मिलती थी, उन्हीं सज्जनों के हित होने वास्ते अनेक पुस्तकोंसे शुद्धकर तथा बाल वृद्ध सर्व महाशयोंके उप योगके लिये मोटे अक्षरोंमें छपाकर और सुन्दर कपड़ेकी जिल्द बंधवा ॥कर यह चारुदत्तचरित्र हमने बड़े प्रयत्नसे प्रकाशित किया है। चारुदत्तसरीखे परमोपकारी पुरुषकी कथासे तो प्रायः समस्त जैनी परिचित ही हैं, इसलिये नोटिसमें लिखनेकी आवश्यकता नहीं है। हम नहीं चाहते थे कि इस चारुदत्तचरित्रका ऐसा नोटिस दें, क्योंकि बिना नोटिस दिये ही बहुतसे महाशय इसकी फरमायश भेज रहे हैं, किन्तु जिनको नहीं मालूम है वे सजन भी इस पुस्तकको जल्दी मंगा 18 लेवें इसलिये नोटिस दिया है। जल्दी मंगा लेवेंगे वे ही इसे पा सकेंगे पीछे बिक जानेपर पछताना पड़ेगा / न्योछावर एक रुपया / 8 अन्यपुस्तकों के लिये हमारा सूचीपत्र मंगाकर देखें. पिता-बद्रीप्रसाद जैन-बनारस सिटी। PAGE1993590209080503930 SS SSSSS