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प्रस्तावना।
प्रिय पाठको! यह तत्त्वार्थसूत्र आपका चिरपरिचित ग्रंथ है इसके पाठ मात्र ही से एक उपवासका फल होता है । इसी कारण हमारी जैनसमाजमें प्रायः आबाल-वृद्ध सभी इसका नित्यपाठ करते हैं खूबी यह है कि इसमें श्रीमन् आचार्य उमास्वामी ने 'गागरिमें सागरकी' उपमाको चरितार्थ किया है अर्थात् जैनागमरूप समुद्रको मथनकर अनेक शब्दरूपी रत्नों में से सार २ मणि चुनकर इसे मालाकार (सूत्राकार) बनाया है जैनियों में यह सर्वोत्तम ग्रंथ माना जाता है यद्यपि इन सूत्रोंपर संस्कृत भाष्य, राजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, इत्यादि अनेक टीकार्य प्राप्त हैं परन्तु वे सब संस्कृत जाने बिना समझमें नहीं आती भाषामें भी कई विद्वानों ने विस्तार पूर्वक इनका अर्थ बताया है परंतु विस्तार तथा वचनिका मय होने से वे सब नित्यक्रिया में उपयोगी नहीं होती इसी त्रुटिकी पूर्ति करने के लिये पंडितछोटेलालजीने इसी काशीमें सम्बत् १९३२ में श्रीमान बाबू उदयराजजी तथा कविवर वृन्दाबनदासजीके सुपुत्र बाबू शिखरचंद्रजीकी सहायता लेकर भापा छंदोंमें रचना की और तत्त्वार्थ सूत्रोंका मर्म इस बुद्धिमानी से छन्दोंमें भरा है कि मूलसूत्रोंका आशय अंशमात्र भी नहीं छूटने पाया । हमें विश्वास होता है कि साधारण हिंदी जाननेवाले भी इससे लाभ उठाकर इसे सर्वोपयोगी समझ प्रसन्न होकर नित्यपाठ करेंगे और इसका प्रचार बढ़ावेंगे। विशेषु किमधिकम् ।
प्रकाशक मालिक-श्रीजैनभारतीभवन।