Book Title: Mokshshastra
Author(s): Chhotelal Pandit
Publisher: Jain Bharti Bhavan
View full book text
________________
तत्त्वार्थसूत्रउच्चैर्नीचैश्च ॥१२॥ दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम्॥१३॥ आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः ॥१४॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥१५॥ लख पांच शरीर औदारकादि । निरमाण रचे जो चक्षु आदि॥१४॥ बन्धन पुदगलको मेल जान । संघात सु दृढती संधि मान ॥ संस्थान कहो सम चतुस्थान । संहनन सूत्रमें छै बखान ॥१५॥ सपरसके भेद सु आठ वीर । रस पांच प्रकार सु लखौधीर॥ दो गन्ध वरणके पांच भेद । पूर्वीय अगुरलघुअप सु खेद॥१६॥ परघात लखौक्तप अरु प्रकाश। उस्वास गमन जानो अकाश। उपभोग देत लख इक शरीर । जानो सु प्रत्येक शरीर वीर ॥१७॥ जस सुभग सु सुस्वर शुभ स्वरूप । सूक्षम पर्याप्त सु थिर अनूप ॥ आदेय स्वयश कीरति निहार।लख इतर सहित दश प्रकृतिसार तीर्थकर गोत्र करो विचार । यह नामकर्म व्यालीस सार ॥ ऊँचो अरु नीचो गोत्र दोय । अब अन्तरायको भेद जोय॥१९॥ मुनिदान लोभ भोगोपभोग । बीर्यातराय पद पांच जोग॥ ज्ञानावर्णी सों तीन जान । अरु अन्तरायको जोग मान॥२०॥ थिति कोड़ा कोड़ी तीस लेउ। सेनी पंचेंद्रिय परयाप्त भेउ । सत्तर कोडा कोडी निहार । तिथि मोहनि कर्म हिये सुधार॥२१॥ * अपघात । + आतप । उद्योत ।

Page Navigation
1 ... 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70