Book Title: Mithyattvi ka Adhyatmik Vikas Author(s): Shreechand Choradiya Publisher: Jain Darshan PrakashanPage 17
________________ [ 14 ] बावश्यकता हुई। उक्त ईश्वर और उसके अवतारों, पैगम्बरों आदि की आराधना उपासना ने धर्म का रूप लिया। मनुष्य का चिन्तन और आगे बढ़ा तो उसने दार्शनिकता का रूप लिया तथा भिन्न-भिन्न दर्शनों को जन्म दिया। अब वैसे ईश्वर तथा उसके अवतारों, पैगम्बरों आदि की मान्यता भी निरर्थक सी प्रतीत हुई। मनस्वी चिन्तक का ध्यान, अन्तर्मुखी हुआ, बाहर से हटकर स्वयं पर बाया, कोऽहं पर केन्द्रित हुआ, और कोऽहं से सोऽहं तक की दूरी तय करता हबा परम प्राप्तव्य की प्राप्ति में निष्पन्न हुआ। उसका लक्ष्य स्व का चरमप्तम आध्यात्मिक विकास, अर्थात् आत्मा से परमात्मा बनना हुया । । धर्म तत्त्व के स्वरूप विकास का जो संकेत ऊपर किया गया है, उससे ऐसा लग सकता है कि वह उसका ऐतिहासिक विकास क्रम है अर्थात् जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता गया वैसे-वैसे ही धर्म के स्वरूप का विकास होता गया। किन्तु ऐसा है नहीं। धर्म के तद्प्रभृति भिन्न रूप-आदिम अंधविश्वास, जादू होना, भूत-प्रेतों की मान्यता, वृक्ष पूजा, नागपूषा, योनिपूजा, लिंगपूजा, बहुदेवतावाद, एकेश्वरवाद, अवतारवाद या पैगम्बरवाद, अनीश्वरवाद, अध्यात्मवाद आदि सदेव से रहते आये है, और आज भी प्रचलित है। ये ही नहीं, आज तक का तथाकथित युक्तिवादी, विज्ञानवादी, सुसभ्य एवं सुसंस्कृत मनुष्य जिसप्रकार आत्मा-परमात्मा, इहलोक-परलोक, पाप-पुण्य बादि की सत्ता में विश्वास नहीं करता, धर्म का मखौल उड़ाकर स्वयं को परम नास्तिक कहने में गर्व मानता है, वर्तमान जीवन को ही व्यक्ति का अथ और अन्त सब कुछ, मानकर चलता है, प्राचीन काल में भारतवर्ष के बार्हस्पत्य, लोकायत, चार्वाक आदि । यूनान और रोम के एपीक्यूरियन्स व एनास्टिक्स, ईरान और मध्यएशिया के मानी एवं मजदक ऐसे ही विचारों का डंके को चोट प्रतिपादन करते थे। वस्तुतः प्रायः सभी प्रकार के धार्मिक विश्वासी, मान्यताओं और दार्शनिक विचारों का अस्तित्व अत्यन्त प्राचीन काल से ही रहता आया है, भले ही उनके रूप सुदूर अतीत में उसने परिष्कृत, विस्तृत या पटिल अथवा दार्शनिक न रहे हों जितने कि वे समय की गति के साथ होते गये । युग विशेषों, क्षेत्र Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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