Book Title: Mahabandho Part 1
Author(s): Bhutbali, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 418
________________ पयडिबंधाहियारो २९३ २५७. कोधादिसु तिसु पुरिसभंगो। मवरि तिरिक्खायु ओघं । एवं लोभे, मवार छम्मासं । २५८. अवगदबेदेसु सादबंधा अबंधगा णत्थि अंतरं । सेसं बंधगा जहण्णेण एगस०, उक्कस्सेण छम्मासं । अबंधगा पत्थि अंतरं । २५६. अकसाइगेसु साद-बंधा अबंधगा णस्थि अंतरं । एवं केवलदंसणा० । विभंगे पंचिंदिय-तिरिक्ख-पज्जत्तभंगो। २६०. आभि० सुद० ओधि० दो-आयु० बंधगा जहण्णेण एगस०, उक्कस्सेण मासपुधत अंतरं । सेसाणं दो-मणभंगो। ओधिणा वासपुधत्त । २६१. एवं मणपज्जव० ओधिदं० । वरि मणपजव० देवायु ० वासपुधत्त । होनेपर सभी जीव स्त्रीवेदके द्वारा क्षपकश्रेणीपर आरूढ़ हो गये । पुनः ४, ५ मासका अन्तर करके नपुंसकवेदके उदयसे कुछ जीव क्षपकश्रेणीपर चढ़े। पुनः १, २ मासका अन्तर कर कुछ जीव स्त्रीवेदके द्वारा क्षपकश्रेणी पर चढ़े। इस प्रकार संख्यात बार स्त्रीवेद और नपुंसक वेदके उदयसे ही क्षपकश्रेणीपरः आरोहण करा करके पश्चात् पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणी चढ़नेपर साधिक वर्ष प्रमाण अन्तर हो जाता है। क्योंकि निरन्तर ६ मासके अन्तरसे अधिक अन्तरका होना असम्भव है। इसी प्रकार, 'पुरुषवेदी' अनिवृत्तिकरण क्षपकका भी अन्तर जानना चाहिए। 'कितनी ही सूत्र पोथियोंमें पुरुषवेदका उत्कृष्ट अन्तर ६ मास पाया जाता है। (जीवट्ठाण अन्तरा० पृ० १०६) स्त्रीवेद, पुरुषवेद तथा ४ आयुके बन्धकों, अबन्धकों में पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों के समान भंग जानना चाहिए । नपुंसकवेदमें-ओघवत जानना चाहिए । २५७. क्रोध-मान-मायाकषायमें-पुरुषवेदके समान भंग है। विशेष इतना है कि ति यचायुके बन्धकों, अबन्धकोंका अन्तर ओघवत् जानना चाहिए । लोभकषायमें-इसी प्रकार समझना चाहिए । विशेष, यहाँ अन्तर छह मास जानना चाहिए। २५८. अपगत वेदमें-साताके बन्धकों, अबन्धकोंमें अन्तर नहीं है। शेष प्रकृति के बन्धकोंमें जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे छह माह अन्तर है ; अबन्धकोंका अन्तर नहीं है। २५९. अकषायियोंमें-साताके बन्धकों अबन्धकोंमें अन्तर नहीं है। केवलज्ञान, केवलदर्शनमें इसी प्रकार जानना। विभंगावधिमें पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्तकोंका भंग जानना चाहिए। २६०. आभिनिबोधिक श्रुत तथा अवधिज्ञानमें-दो आयु अर्थात् मनुष्य-देवायुके बन्धकोंका जघन्यसे एक समय, उत्कृष्टसे मासपृथक्त्व अन्तर है। शेष प्रकृतियोंमें दो मनयोगियों के समान भंग है । अवधिज्ञानियों में वर्षपृथक्त्व अन्तर है । २६१. मनःपर्ययज्ञान,अवधि दर्शनमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष यह है कि मनःपर्ययज्ञानमें देवायुका अन्तर वर्षपृथक्त्व है ।' १. केसुवि सुत्तपोत्यएसु पुरिसवेदमंतरं छम्मासा - जी०,अंत० पृ० १०६ । २: "आभिणिबोहिय-सुदओहिणाणीसु""चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं, उक्कस्सेण मासपुधत्तं ।" -षटूखं०,अंतरा०२३२, २४१, २४२, २४५। ३. "मणपज्जवणाणीसु.. चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं उक्कस्सेण 'वासपुधत्तं ।" -२४६, २४६, २५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520