Book Title: Mahabandho Part 1
Author(s): Bhutbali, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 443
________________ ३१८ महाबंधे खयोवस० । मणुस-देवायु बंधा० ओदइ । अबंधगा ओदइ० खयोव० । तिण्णिआयु० बंधा० ओदइ० | अबंध० ओदइ० खयोव० । इत्थि-णqसग-भंगो तिरिक्खगदि-एइंदियजादि-पंचसंठा० पंचसंघ० तिरिक्खाणु० आदा-उजो० अप्पसत्थवि० थावरभंगदुस्सर-अणा० णीचागोद च। मणुसगदि-ओरालि० ओरालि० अंगो० वअरिस० मणुसाणु • बंध० ओदइगो भावो । अबं० ओदइ० खयोवसमिगो वा। देवगदि०४ पंचिंदि० आहारदुग-समचदु० पसत्थवि० तस० सुभग-सुस्सर-आदे० तित्थय? बंध० अबं० ओदइगो भावो । तिण्णं गदीणं बंध० ओदइ० । अबंधगा णत्थि। एदेण बीजपदेण णेदव्यं । २८६. एवं पम्माए, एइंदिय० आदाव-थावरं वज्ज । २६०. वेदगे-धुविगाणं बंधगा० ओदइगो भावो । अबंधा गत्थि । सेसाणं तेउ-भंगो। अबन्धकोंमें औदायिक, औपशमिक, क्षायिक तथा झायोपशमिक भाव है। विशेष-अन्य आयुवन्धकी अपेक्षा औदायिक भाव है तथा तिर्यंचायुके अबन्धक अविरतसम्यक्त्वीके सम्यक्त्वत्रयवालों की अपेक्षा औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक भाव है । देशविरत, प्रमत्त, अप्रमत्तकी अपेक्षा श्रायोपशमिक भाव है। मनुष्यायु-देवायुके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक भाव है। अबन्धकोंके औदयिक, क्षायोपशमिक भाव है। तिर्यंच-मनुष्य-देवायुके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक है। विशेष-तेजोलेश्यामें नरकायुका बन्ध नहीं होनेसे उसका ग्रहण नहीं किया है। आयुत्रयके अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक तथा क्षायोपामिक है। तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, ५ संस्थान, ५ संहनन, तिर्यंचानुपूर्वो, आतप, उद्योत, अप्रशस्त-विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय तथा नीच गोत्रमें स्त्रीवेद, नपुंसकवेदके समान भंग जानना चाहिए। अर्थात् बन्धकों के औदायिक है। अवन्धकोंके औदयिक, औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक हैं। मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, वनवृपभसंहनन तथा मनुष्यानुपूर्वी के बन्धकों के औदायिक भाव है । अबन्धकोंके औदायिक वा क्षायोपशमिक भाव है। देवगति ४, पंचेन्द्रिय जाति, आहारकद्विक, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, स, सुभग, सुस्वर, आदेय तथा तीर्थकरके बन्धकों,अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक भाव है। तीन गतियों के बन्धकों के कौन भाव है ? औदयिक भाव है; अबन्धक नहीं है। इसी बीजपढ़के द्वारा अन्य प्रकृतियों का वर्णन जानना चाहिए । २८६. पद्मलेश्यामें - इसी प्रकार जानना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ एकेन्द्रिय, आतप तथा स्थावर प्रकृतियोंको नहीं ग्रहण करना चाहिए। २६०. वेदकसम्यक्त्वमें - ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक भाव है। अबन्धक नहीं है। १. “मिच्छस्संतिमणवयं वारं न हि तेउपम्मेसु ।" -गो० क० गा० १२० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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