Book Title: Mahabandho Part 1
Author(s): Bhutbali, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 503
________________ ३७८ महाबंधे विसे० । साद-बंधगा जीवा विसेसा० । उवरि मणजोगिभंगो। असण्णी-मिच्छादिहि. भंगो। आहारा-ओघभंगो । अणाहारा-कम्मइगभंगो । एवं परत्थाण-जीव-अप्पाबहुगं समत्तं । बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। हास्य, रतिके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। साता वेदनीयके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। आगेकी शेष प्रकृतियोंमें मनोयोगीके समान भंग हैं। असंज्ञीमें मिथ्यादृष्टिके समान भंग हैं। आहारकमें - ओघके समान भंग हैं। अनाहारकोंमें - कार्मण काययोगीके समान भंग हैं। इस प्रकार परस्थान जीव अल्प-बहुत्व समाप्त हुआ। १. "सण्णियाणुवादेण सव्वत्थोवा सण्णी । णेवे सण्णी णेव असण्णी अणंतगुणा । असण्णी अणंतगुणा । -खु० ब०,अप्पाबहु सू० २००-२०२,पृ. ५७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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