Book Title: Mahabandho Part 1
Author(s): Bhutbali, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 509
________________ ३८४ महाबंधे असादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा। पज्जत्तस्स सादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेज्जगुणा । असादस्स उक्कसिया बंधगद्धा संखेज्जगुणा । एवं तिण्णि-वेदाणं हस्स-रदिअरदि-सोगाणं दोगदि-छस्संठाणं छस्संघडण दो-आणुपुव्वि-दोविहायगदि-थिरादिछयुगलं दोगोदाणं च सादासादभंगो । एवं याव छट्ठिति । सत्तमाए एवं चेव । णवरि दोगदि-दोआणुपुन्वि-दोगोदाणं च णत्थि अप्पाबहुगं । तिरिक[क्ख] गदि-णqसगवेदमदिअण्णाणि - सुदअण्णाणि-असंजद-अचखुदंसणि-भवसिद्धिय-अन्भवसिद्धिय -मिच्छादिदि-असण्णि-आहारग ति ओघभंगो। णवरि असण्णीसु बारस जीवसमासा त्ति भाणिदव्यं । पंचिंदिय-तिरिक्खेसु-चदुण्णं जीवसमासाणं कादव्वं । पंचिंदिय-तिरिक्खपज्जत्तजोणिणीसु दोजीवसमासाणं भाणिदव्वं सण्णि-असण्णित्ति । पंचिंदिय-तिरिक्खअपज्जत्तगेसु दोजीवसमासा सण्णि-असण्णित्ति । मणुसेसु-दो जीवसमासा। पजत्तसाताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। असाताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । पर्याप्तक नारकोमें-साताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। असाताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। तीन वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, २ गति, (मनुष्य-तियेचगति), ६ संस्थान, ६ संहनन, २ आनुपूर्वी, २ विहायोगति, स्थिरादि छह युगल तथा दो गोत्रों के बन्धकोंमें साता, असाता वेदनीयके समान भंग जानना चाहिए। यह क्रम प्रथम पृथ्वीसे छठी पृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए। सातवीं पृथ्वीमें-इसी प्रकार भंग है । विशेष, दो गति, २ आनुपूर्वी, २ गोत्रोंके बन्धकोंमें अल्पबहुत्व नहीं है। विशेष-सातवीं पृथ्वीमें मिथ्यात्व, सासादन गुणस्थानमें ही तियेचगति, तिथंचानुपूर्वी तथा नीच गोत्रका बन्ध होता है। तृतीय तथा चतुर्थ गुणस्थानमें ही मनुष्यगति, मनुप्यानुपूर्वी तथा उच्च गोत्रका बन्ध होता है। अतः इनके निमित्तसे सप्तम पृथ्वीमें अल्पबहुत्वपना नहीं पाया जाता है। तिर्यंचगति, नपुंसकवेद, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयमी, अचक्षुदर्शनी, भव्य सिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यादृष्टी, असंज्ञी, आहारक में ओघके समान भंग जानना चाहिए। विशेष, असंज्ञी जीवोंमें बारह जीवसमास कहना चाहिए। विशेष-इनमें संज्ञी पर्याप्तक तथा संज्ञी अपर्याप्तक ये दो जीवसमास नहीं होते हैं। पंचेन्द्रिय-तिर्यचोंमें-संज्ञी, असंज्ञी तथा इन दोनोंके पर्याप्तक, अपर्याप्तक भेदरूप चार जीवसमास हैं। पंचेन्द्रिय-तियंच-पर्याप्तक तथा पंचेन्द्रिय-तिर्यंच-योनिमतियोंमें-संज्ञी तथा असंज्ञी ये दो जीवसमास कहना चाहिए। पंचेन्द्रिय-तियंच-अपर्याप्तकोंमें-संज्ञी तथा असंज्ञी ये दो जीवसमास हैं। मनुष्योंमें-संज्ञी पर्याप्तक तथा संज्ञी-अपर्याप्तक ये दो जीवसमास हैं। विशेषार्थ-मनुष्योंमें असंज्ञी भेद नहीं होता।' लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य भी संज्ञी ही १. मनुष्यगती कर्मभूमौ आर्यखण्डे पर्याप्त-निवृत्त्यपर्याप्त-लब्ध्यपर्याप्तास्त्रयो जीवसमासाः । म्लेच्छखण्डे लब्ध्यपर्याप्तकाभावात् द्वौ जीवसमासौ। भोगभूमौ कुभोगभूमौ च द्वौ द्वो जीवसमासौ तत्रापि लब्ध्यपर्याप्तका. भावात् । कर्मभूमौ मनुष्याणां आर्यखण्डे गर्भजेषु पर्याप्त निवृत्त्यपर्याप्ती, संमूछिमे तु लब्ध्यपर्याप्त एवेति त्रयः । -गो० जी०सं० टीका,पृ० १६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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