Book Title: Mahabandho Part 1
Author(s): Bhutbali, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 514
________________ पयडिबंधाहियारो ३८९ पंचिंदियतिरिक्ख-जोणिणीसु-मणुस०३ पंचिदिय-तस०२ इथि० पुरिस० णस० मदिअण्णाणि सुदअण्णाणि० असंजद० चक्खुदं० अचक्खुदं० भवसिद्धि० अन्भव सिद्धि० मिच्छादि० सण्णि-असण्णि-आहारगत्ति । ३५६. आदेसेण–णेरइएसु-आयुगवजाणं पण्णारसण्णं पगदीणं जहणियाओ बंधगद्धाओ सरिसाओ थोवाओ । दोण्णं आयुगाणं जहणिया बंधगद्धा सरिसा संखेजगुणा। उक्क० बंधगद्धा संखेजगुणा। उच्चागोदस्स उक्कस्सि० बंधगद्धा संखेजगुणा । मणुसगदि-उक्कस्सि० बंधगद्धा संखेजगुणा । पुरिसवेदस्स उकस्सि० बंधगद्धा संखेजगुणा । इत्थिवेदस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा। साद-हस्सरदि-जस० उक्कस्सि० बंधगद्धा विसेसा० । णवुसग-वेदस्स उक्कस्सि० बंधगद्धा संखे० गुणा । असाद-अरदि-सोग-अजस० उक्कस्सि० बंधगद्धा विसेसा० । तिरिक्खगदि-उक्कस्सिया बंधगद्धा विसेसा० । णीचागोदस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा विसेसा० । एवं छसु पुढवीसु०। सत्तमाए आयुग-बज्जाणं एकारसण्णं पगदीणं जहण्णियाओ बंधगद्धाओ सरिसाओ थोवाओ। तिरिक्खायु-जहणिया बंधगद्धा संखेज्जमतियोंमें, मनुष्य, मनुष्यपर्याप्तक, मनुष्यनी, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, त्रस, त्रस-पर्याप्तक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी, आहारक में ओववत् भंग जानना चाहिए। ३५६. आदेशसे, नारकियोंमें-आयुको छोड़कर १५ प्रकृतियोंके बन्धकोंका समान रूपसे स्तोककाल है। विशेष-यहाँ पूर्वोक्त २१ प्रकृतियों में से चार आयु तथा नरकगति, देवगतिको घटानेसे शेष १५ प्रकृति रहती हैं। नरकगति, देवगतिका बन्ध नारकियोंके नहीं पाया जाता है । (गो० क०,गा० १०५ )। मनुष्यायु, तियचायुके बन्धकोंका जघन्य काल समान रूपसे संख्यातगुणा है । उत्कृष्ट बन्धकोंका काल संख्यातगुणा है। उच्चगोत्रके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। मनुष्यगतिके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणाहै। पुरुषवेद के बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यात गुणा है। स्त्रीवेदके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है । साता, हास्य, रति, यशःकीर्तिके बन्धकोंका उन्कृष्ट काल विशेषाधिक है। नपुंसकवेदके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। असाता, अर ति, शोक, अयशाकीर्तिके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है । तिर्यंचगतिके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है। नीच गोत्रके बन्धकोंका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक है। इस प्रकार छह पृश्चियोंमें जानना चाहिए । सातवीं पृथ्वीमें-आयुको छोड़कर ११ प्रकृतियों के बन्धकोंका जघन्य काल समान रूपसे स्तोक है। विशेष-नारकियोंकी सामान्यसे १५ प्रकृतियाँ हैं। उनमें से मनुष्यगति, तिथंचगति तथा दो गोत्रको घटानेसे ११ शेष रहती हैं। इसका कारण यह है कि सातवें नरकमें मनुष्यगति तथा उच्चगोत्रका बन्ध सम्यक्त्व, मिथ्यात्व तथा अविरतसम्यक्त्व गुणस्थानमें ही होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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