Book Title: Mahabandho Part 1
Author(s): Bhutbali, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 504
________________ [अद्धा-अप्पा-बहुगपरूवणा] ३४६. अद्धा-अप्पाबहुगं दुविहं । सत्थाण-अद्धा-अप्पाबहुगं चेव, परत्थाण अद्धाअप्पाबहुगं चेव । सत्थाण-अद्धा-अप्पाबहुगं पगदं। दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण-एत्तो परियत्तमाणियाणं अद्धाणं जहण्णुक्कस्सपदेण एकदो कादूण चोद्दसण्णं जीवसमासाणं ओघियअप्पाबहुगं वत्तइस्सामो। चोद्दस्सण्णं जीवसमासाणंसादासादं दोणं पगदीणं जहणियाओ बंध-गद्धाओ सरिसाओ थोवाओ। सुहुमअपजत्तस्स सादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा संखेजगुणा । असादस्स उक्कस्सिया बंधगद्धा [अडा अल्प बहुत्व ] ३४६. अद्धा-अल्पबहुत्वका अर्थ है कालसम्बन्धो हीनाधिकपना। यहाँ स्वस्थान-अद्धाअल्प-बहुत्व तथा परस्थान-अद्धा अल्प-बहुत्वके भेदसे अद्धा-अल्प-बहुत्व दो प्रकारका है । स्वस्थान-अद्धा-अल्प बहुत्व प्रकृत है। उसका ओघ तथा आदेश-द्वारा दो प्रकारसे निर्देश करते हैं। ओघसे-यहाँ से आगे चौदह 'जीवसमासों में ओघसम्बन्धी अल्प-बहुत्वका परिवर्तमान प्रकृतियोंके कालको जघन्य और उत्कृष्ट पदके द्वारा एक-एक करके, वर्णन करेंगे। चौदह जीव समासोंमें साता-असाता इन दोनों प्रकृतियोंके बन्धकोंका जघन्य काल समान रूपसे स्तोक है। विशेष-सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय. संज्ञी पंचेन्द्रिय. इन सातोंमें-से प्रत्येकके पयोप्त-अपयोप्त भेद करनेपर चौदह जीवसमास होते हैं। यहाँ वेदनीय २, वेद ३, हास्यादि ४, गति ४, जाति ५, शरीर २, संस्थान ६, संहनन ६, आनुपूर्वी ४, विहायोगति, त्रसस्थावरादि ४, स्थिरादि ६ युगल, अंगोपांग २, गोत्र २ ये परिवर्तमान प्रकृतियाँ जघन्य उत्कृष्ट कालके भेदसे चौदह जीवसमासोंमें वर्णित की गयी हैं। सूक्ष्म अपर्याप्तकमें साताके बन्धकका उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है। असाताके बन्धक १. "अत्थि चोद्दस जीवसमासा । के ते ? एइंदिया दुविहा बादरा सुहुमा। बादरा दुविहा, पज्जत्ता, अपज्जत्ता। सुहुमा दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता। बीइंदिया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता। तीइंदिया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता। चउरिदिया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता। पंचिदिया दुविहा सणिणो असण्णिणो । सणिणो दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता । असण्णिणो दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता इदि । ऐदे चोद्दस जीवसमासा, अदीदजीवसमासा वि अस्थि ।" -ध०टी०भा०२ पृ०४१५, ४१६ । बादर-सुहमेइंदिय-बि-ति-चरिदिय-असण्णि-सण्णी य। पज्जत्तापज्जत्ता एवं ते चोदसा होति । -गो० जी०७२। २. "पूर्णाः पर्याप्ताः, अपूर्णद्विकाः द्विधा - अपर्याप्ताः - निवृत्यपर्याप्ताः लब्ध्यपर्याप्ताश्चेति ।" . -गो० जी० सं० टी० पृ० १६० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520