Book Title: Mahabandho Part 1
Author(s): Bhutbali, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 488
________________ पडबंधा हियारो उवरि मूलोघं । ३३१. मणुस -पजत्त मणुसिणीसु - सव्वत्थोवा आहार० बंधगा जीवा । तित्थय ० बंधा जीवा संखेञ्जगु० । मणुसायुबंधगा जीवा संखेजगु० । णिरयायु-बंधगा जीवा संखेज० । देवायु-बंधगा जीवा संखेञ्जगु० । तिरिक्खायुबंध० जीवा संखेअगु० । देवदि-बंधगा जीवा संखेजगु० । उच्चागो० बंधगा जीवा संखेजगु० । मणुसगदिबंधा जीवा संखेज० । पुरिस० बंधगा संखेज ० । इत्थि० बंधगा जीवा संखेज० । जस० बंधगा जीवा संखेज० । हस्सरदि-बंधगा जीवा संखेज० । साद-बंधगा जीवा विसे० । तिरिक्खगदि-बंधगा जीवा संखेज० । ओरालि० बंधगा जीवा विसे० । णिरयगदि-बंधगा जीवा संखेज० । वेउब्वि० बंधना जीवा विसे० । असाद-अरदिसोगबंधगा जीवा विसे० । अजस० बंघगा जीवा विसे० । णवुं स० बंधगा जीवा विसे० । णीचागो० बंधगा जीवा विसे० । मिच्छत्तबंधगा जीवा विसे० । उवरि मूलोघं | मणुस-अपजत्त-पंचिदिय-तिरिक्ख-अपजत्तभंगो । 1 ३३२. देवेसु सव्वत्थोवा मणुसायु-बंधगा जीवा । तित्थय० बंधगा जीवा असंखेज्जगु० । तिरिक्खायु- चंधगा असंखेज्ज० । उच्चामो० बंधगा जीवा संखेज्ज० । ३६३ बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। आगेकी प्रकृतियोंमें अर्थात् स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४, अप्रत्याख्यानावरण ४, प्रत्याख्यानावरण ४, निद्रा, प्रचला, तैजस, कार्मण, भय, जुगुप्सा, संज्वलन-क्रोध मान माया लोभ, ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ५ अन्तराय मूलके ओघवत् जानना चाहिए। _ ३३१. मनुष्यपर्याप्तक, मनुष्यनियों में आहारक शरीरके बन्धक सर्वस्तोक हैं । तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । मनुष्यायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । नरकायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। देवायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । तिर्यचायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । देवगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। उच्च गोत्रके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। मनुष्यगति बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । पुरुषवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । स्त्रीवेदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । यशः कीर्तिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । हास्य, रतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। सातावेदनीयके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । तिर्यंचगतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । औदारिक शरीरके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। नरकगति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक शरीरको बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । असाता, अरति शोकके बन्धक विशेष अधिक हैं । अयशःकीर्त्तिके बन्धक विशेषाधिक हैं। नपुंसकवेदके बन्धक विशेपाधिक हैं। नीच गोत्रके बन्धक विशेषाधिक हैं। मिथ्यात्वके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । आगेकी प्रकृतियों में अर्थात् ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ४, अन्तराय ५, स्त्यानगृ द्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ आदि में मूलके ओघवत् जानना चाहिए । मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तकों में - पंचेन्द्रियतिर्यंच अपर्याप्तकके समान भंग है । Jain Education International ३३२. देवोंमें - मनुष्यायुके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । तिर्यंचायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । उच्च गोत्रके बन्धक जीव For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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