Book Title: Mahabandho Part 1
Author(s): Bhutbali, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 498
________________ पयडिबंधाहियारो ३७३ ३४१. परिहारे--सव्वत्थोवा देवायुबंधगा जीवा । आहार० बंधगा जीवा संखेज्जः । साद हस्स-रदि-जसगि० सरिसा संखेजगुणा । असाद-अरदि-सोग-अञ्ज० बंधगा जीवा संखेजगुणा । सेसाणं सरिसा विसेसा० । ३४२. संजदासंजदा--सव्वत्थोवा देवायु-बंधगा जीवा । साद-हस्स-दि-जस० बंधगा जीवा संखेजगुणा । असाद-अरदि-सोग-अज. बंधगा जीवा संखेअगु० । सेसाणं बंधगा जीवा सरिसा विसेसाहिया । ___३४३. असंजदेसु--तिरिक्खोघं । णवरि थीणगिद्धि३ अर्णताणुबंधि४ बंधगा जीवा विसेसा० । सेसाणं बंधगा जीवा सरिसा० विसेसा० । ____३४४. चक्खुदंसणी-तस-पज्जत्तभंगो। अचखुदंसणी--ओघं । ओधिदंसणीओधिणाणिभंगो। ३४५. तिण्णि लेस्सा-असंजदभंगो। तेउलेस्सि--सव्वत्थोवा आहार बंधगा जीवा । मणुसायु-बंधगा जीवा संखेजः । देवायु-बंधगा जीवा असंखेजगु० । तिरिक्खायुबंधगा असंखेजः । देवगदि-वेउव्विय० बंधगा संखेजगुणा । उच्चागो० ३४१. परिहारविशुद्धि संयममें-देवायुके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं । आहारकशरीरके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । साता, हास्य, रति, यश कीर्ति के बन्धक जीव सदृश रूपसे संख्यातगुणे हैं । असाता, अरति, शोक, अयश कीर्तिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृति के बन्धक सदृश रूप विशेषाधिक हैं। विशेषार्थ-परिहार विशुद्धि संयममें आहारकद्विकका बन्ध होता है । यहाँ आहारक शरीरके बन्धका विरोध न होनेसे आहारक शरीरके बन्धकोंका कथन किया गया है। इतना विशेष है कि इस संयममें आहारकके उदयका विरोध है । गो० कर्मकाण्ड टीकामें लिखा है"परिहारविशुद्धिसंयमे तीर्थकर आहारकद्विकबन्धोऽस्ति, नाहारकर्षिः- पृ० ११३ । ३४२. संयतासंयतोंमें-देवायुके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। साता, हास्य, रति, यशःकीर्ति के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । असाता, अरति, शोक, अयशःकीतिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियों के बन्धक जीव सदृश रूपसे विशेषाधिक हैं। ३४३. असंयतोंमें-तिर्यचोंके ओघवत् जानना चाहिए। विशेष, स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। शेष प्रकृतियोंके बन्धक जीव सदृश रूपसे विशेषाधिक हैं। ३४४. चक्षदर्शनवालोंमें-सपर्याप्तकके समान भंग जानना चाहिए। अचक्षुदर्शनवालोंमें ओघवत् जानना चाहिए । अवधिदर्शनवालोंमें-अवधिज्ञानके समान भंग हैं। ३४५. कृष्णादि तीन लेश्यावालोंमें-असंयतोंके समान भंग हैं। विशेष-कृष्णादि लेश्यात्रय असंयत गुणस्थानपर्यन्त कही गयी हैं। अतः असंयतोंके समान इनका भंग कहा गया है। तेजोलेश्यावालोंमें आहारक शरीरके बन्धक जीव सर्वस्तोक हैं। मनुष्यायुके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। देवायुके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। तियंचायुके बन्धक असंख्यातगुणे हैं । देवगति, वैक्रियिक शरीरके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। उच्चगोत्रके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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