Book Title: Mahabandho Part 1
Author(s): Bhutbali, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 441
________________ ३१६ महाबंधे २८४. एवं केवलणा० यथाखाद० केवल-दसणा० । २८५. आभि० सुद० ओधि० मणपज्जव० संजद० ओधि० सम्मादि० खइग० ओघं । प्रवरि मिच्छ-संयुत्ताओ वज०। २८६. सामाइ० छेदो०-पंचणा० चदुदंस० लोभसंजल० उच्यागोद-पंचंतराइगाणं बंधगा० ओदइगो भावो । अबंधा णत्थि । सेसं मणपज्जव-भंगो । परिहारे-देवायुबंध० ओदइगो भावो । अबंध० ओदइ० खयोवसमिगो वा । एवं असादादिछ । सेसं ओदइ० भावो । सुहुमसं०-संजदासंजद-सव्वाणं बंध० ओदइ० । विशेष-शंका - अकषाय मार्गणा नहीं बन सकती, कारण जीवका जैसे ज्ञानदर्शन गुण है, उसी प्रकार कषाय नामका भी गुण है । गुणका विनाश माननेपर गुणीका भी विनाश होगा । इस प्रकार अकष यमार्गणा माननेपर जीवका अभाव हो जायगा। समाधान-ज्ञानदर्शनके समान कषाय नहीं है, अतएव कषाय जीक्का लक्षण नहीं हो सकता। कर्मजनित कपाय भावको, जीवका लक्षाण या गुण मानना अयुक्त है। कषायोंका काँसे उत्पन्न होना असिद्ध नहीं है, कारण कषायकी वृद्धि होनेपर जीवके ज्ञानकी हानि अन्य प्रकारसे नहीं बन सकती है, इसलिए कषायका कर्मसे उत्पन्न होना सिद्ध है । गुण गुणान्तरका विरोधी नहीं होता, क्योंकि अन्यत्र वैसा नहीं देखा जाता। (ध० टी०,भावा०५, पृ० २२३) . २८४. केवलज्ञान, यथाख्यातसंयम, केवलदर्शन में इसी प्रकार जानना चाहिए। २८५. आभिनिबोधिक, श्रुत, 'अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, संयन, अवधिदर्शन, सम्य. ग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टिके ओघवत् भाव जानना चाहिए। इतना विशेष है कि यहाँ मिथ्यात्वसंयुक्त प्रकृतियों को नहीं लेना चाहिए। २८६. सामायिक,छेदोपस्थापना संयममें-५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, लोभ संज्वलन, उच्च गोत्र, तथा ५ अन्तरायों के बन्धकोंके औदयिक भाव है; अबन्धक नहीं है। शेष प्रकृ. तियोंके बन्धकों-अबन्धकोंमें मनःपर्ययज्ञानके समान भंग जानना चाहिए। विशेषार्थ-यह संयम छठेसे नवें गुणस्थान पर्यन्त पाया जाता है, इससे इसमें ज्ञानावरणादिके अबन्धकोंका अभाव कहा है । उनके अबन्धक उपशान्तकषायादि होते हैं। परिहारविशद्धि संयममें - देवायुके बन्धकोंके औदयिक भाव है। अबन्धकोंके औदयिक तथा क्षायोपशामिक भाव है। विशेष-परिहारविशुद्धि संयम प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थानमें पाया जाता है। वहाँ देवायुका बन्ध न करनेवाले जीवोंके चारित्रमोहनीयकी अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव कहा है। अन्य प्रकृतियोंके बन्धकोंकी अपेक्षा औदायिक भाव है। इसी प्रकार असाता, अस्थिर, अशुभ, अयश-कीर्ति, शोक तथा अरतिमें जानना चाहिए। शेषमें औदायिक भाव है । सूक्ष्मसाम्पराय तथा संयमासंयममें - सब प्रकृतियोंके बन्धकोंके औदयिक भाव है। १. “यथाख्यातविहारशुद्धिसंयता उपशान्तकषायादयोऽयोगकेवल्यन्ताः।' २. 'आभिनिबोधिकश्रुतावधिज्ञानेषु असंयतसम्यग्दृष्ट यादीनि क्षीणकषायान्तानि सन्ति। मनःपर्यय ज्ञान प्रमत्तसंयतादयः क्षीणकषायान्ताः सन्ति । संयताः प्रमत्तादयोऽयोगकेवल्यन्ताः । क्षायिकसम्यक्त्वे असंयतसम्यग्दष्टयादीनि अयोगकेवल्यन्तानि सन्ति ।"-स० सि०, पृ० १२ । ३. "तेजःपद्मलेश्ययोमिथ्यादृष्ट्यादीनि अप्रमत्तस्थानान्तानि ।" -स० सि०,पृ० १२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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