Book Title: Mahabandho Part 1
Author(s): Bhutbali, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 478
________________ पयधाहियारो ३५३ बामणवं० जीवा संखेज० । हुंडसं० बंध जीवा संखेज्ज० । समचदु० बंधगा जीवा संखेज ० ० । छष्णं बंधगा जीवा विसेसा० । एवं छस्संघ० । दोविहा० सुभगादि - तिण्णियुगल-णीचुच्चागो० अ० जीवा थोवा । अप्पसत्थवि० दूभग दुस्सर अणादे० णीचागो० बंगा जीवा असंखेज ० । तप्पडिपक्खाणं बंधगा जीवा संखेज ० । थिरादितिष्णियुग० मणभंगो | सव्वत्थोवा तित्थयरबंधगा जीवा । अबंधगा जीवा संखेज्ज० । भवसिद्धि०ओघं । अब्भवसिद्धिया-मदिभंगो । णवरि मिच्छत्त अबंधगा जीवा णत्थि । ३२३. सम्मादिट्ठीसु -- सव्वत्थोवा पंचणा० पंचिंदि० समचदु० वज्जरिसभ० वण्ण०४ अगुरु०४ पसत्थविहा० तस०४ सुभगादितिष्णियु० णिमिण- तित्थय ० उच्चागो० पंचत• बंधगा जीवा । अबंध० अनंतगुणा । सव्वत्थोवा णिद्दापचला-बंधगा जीवा । चदुदंस० बंधगा जीवा विसेसा० । अबं० अणंतगुणा । णिद्दापचला अबंधगा जीवा विसेसा० । साद-बंधगा जीवा थोवा । असाद-बंधगा जी० संखेज्ज० | दोणं बंधगा ater विसेमा० । अधगा जीवा अनंतगु० । अपच्चक्खाणा०४ बंध० जीवा थोवा । संख्यातगुणे हैं। वामन संस्थानके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। हुण्डकसंस्थान के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । समचतुरस्रसंस्थान के बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। छहों संस्थानोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । I इस प्रकार ६ संहननमें जानना चाहिए । २ विहायोगति, सुभगादि ३ युगल, नीच तथा उच्चगोत्रके अबन्धक जीव स्तोक हैं । अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, नीच गोत्रके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनके प्रतिपक्षी प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय तथा उचगोत्रके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। स्थिरादि ३ युगलों में मनोयोगियोंके समान भंग हैं। तीर्थकर प्रकृति के बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं । अबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । भव्यसिद्धिकोंमें ओघवत् जानना चाहिए। अभव्यसिद्धिकों में - मत्यज्ञानके समान जानना चाहिए। विशेष, मिथ्यात्व के अबन्धक जीव नहीं हैं । ३२३. सम्यग्दृष्टियोंमें—५ ज्ञानावरण, पंचेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रवृषभसंनन, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, प्रशस्त विहायोगति, त्रस ४, सुभगादि तीन युगल, निर्माण, तीर्थकर, उच्च गोत्र, ५ अन्तरायके बन्धक जीव स्तोक हैं। अबन्धक अनन्तगुणे हैं । निद्रा, प्रचलाके बन्धक जीव सर्व स्तोक हैं । ४ दर्शनावरणके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । इनके अबन्धक अनन्तगुणे हैं । निद्रा, प्रचलाके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। साताके बन्धक जीव स्तोक हैं। असाताके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। दोनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । अबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । विशेषार्थ - साता तथा असाताके अबन्धक अयोगकेवली अल्पसंख्या युक्त हैं । यहाँ अबन्धक जीव अनन्तगुणे कहे गये हैं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि होते हुए वेदनीयका अबन्धकपना अनन्त सिद्धों में भी पाया जाता है । 'खुद्दा बन्ध में सम्यक्त्व मार्गणा में अल्पबहुत्व का कथन करते हुए सिद्धांकी अनन्तराशिका वर्णन किया गया है, "यथा सम्मत्ताणुवादेण सव्वत्थोवा सम्मा-मिच्छाइट्ठी । सम्माहट्टो श्रसंखेजगुणा, सिद्धा श्रणंतगुणा, मिच्छाइट्ठी अनंत गुणा” ( सू० १८२ - १६२ ) । ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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