Book Title: Mahabandho Part 1
Author(s): Bhutbali, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 482
________________ पयडिबंधा हियारों ३५७ तेजाक० बंधगा जीवा विसे० । एवं अंगोवंग० । पंच संघ० अबंधगा जीवा थोवा । वञ्जरिसभ० बंधगा जीवा असंखेज० । उवरि संखेज्जगुणा । पंचणं बंधगा जीवा विसे० । सम्मामिच्छे-वेदणी० सत्तणोक० दोग दि-दो- सरीर- दोअंगो० वञ्जरिसभ० थिरादितिष्णियुगलं वेद [ग]भंगो | मिच्छादिट्ठि असण्ण-अन्भव सिद्धिय-भंगो । 1 ३२४. सण्णी - मणजोगि-भंगो। आहार- ओघभंगो । अणाहार० - पंचणा० पंचंत ० aur०४ णिमि० अबंधगा जीवा थोवा । बंधगा जीवा अनंतगुणा । छदंस० अबंधगा जीवा थोक | थीणगिद्धि३ अबंधगा जीवा विसे० । बंधगा जीवा अणंतगु० । छर्दस० बंधगा जीवा विसे० | सेसं ओघं । णवरि थोवा देवगदि-बंधगा । तिष्णं गदीणं अधगा जोत्रा अनंतगुणा | मणुमगदि-बंधगा [ जीवा अणंतगुण] तिरिक्खगदि-बंधगा जीवा ० संखेअ० । तिण्णं बंधगा जीवा विसे० । एवं आणुपुच्त्रि ० | अंगो० कम्मइगभंगो । एवं सत्थाण- जीव- अप्पा बहुगं समत्तं । 1 - ५ संहननके अबन्धक जीव स्तोक हैं। वज्रवृषभनाराचसंहननके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । वज्रनाराच, नाराच आदि संहननों के बन्धक जीवोंमें संख्यातगुणित क्रम जानना चाहिए । पाँचों संहननोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । विशेष - हुण्डक संस्थानकी बन्धव्युच्छित्ति प्रथम गुणस्थान में होनेसे उसका वर्णन नहीं हुआ । सम्यक्त्व-मिथ्यात्व में, २ वेदनीय, ७ नोकषाय, २ गति, २ शरीर, २ अंगोपांग, वावृषभसंहनन, स्थिरादि ३ युगलमें वेदकसम्यक्त्वके समान भंग जानना चाहिए । मिथ्यादृष्टि तथा असंज्ञा में अभव्यसिद्धिकों का भंग जानना चाहिए । ३२४. संज्ञा में - मनोयोगियोंका भंग जानना चाहिए। आहारक में - ओघवत् भंग हैं। अनाहारकों में - ५ ज्ञानावरण, ५ अन्तराय, वर्ण ४, निर्माणके अबन्धक जीव स्तोक हैं । इनके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । ६ दर्शनावरणके अबन्धक जीव स्तोक हैं । स्त्यानगृद्धि त्रिकके अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं । बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । ६ दर्शनावरणके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं। शेष प्रकृतियोंमें ओघवत् हैं । विशेष यह है कि देवगतिके बन्धक जीव स्तोक हैं। तीनों गति के अन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। मनुष्य गतिके बन्धक [अबन्धगुणे हैं ] तिर्यचगतिके बन्धक जीव संख्यातगुगे हैं। तीनोंके बन्धक जीव विशेषाधिक हैं । विशेष - अनाहारकों में नरकगतिके बन्धकोंका अभाव है, इससे उसकी यहाँ परिगणना इसी प्रकार आनुपूर्वी में भी जानना चाहिए। अंगोपांगमें कार्मण काययोगके समान भंग जानना चाहिए । इसी प्रकार स्वस्थान-जीव अल्प-बहुत्वका वर्णन समाप्त हुआ । १. “महाराणुवादेण सम्वत्थोवा अणाहारा अबंधा । बंधा अनंतगुणा ।" - खु० बं०, अप्पा० सू० २०३, २०४ । २. "सग्णियाणुवादेण सम्वत्योत्रा सण्णी । णेत्र सण्णी, णेव असण्णी अनंतगुणा । असण्णी अनंतगुणा । - सू० २०० - २०३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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