Book Title: Mahabandho Part 1
Author(s): Bhutbali, Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 426
________________ पयडिबंधाहियारो ३०१ पंचिंदिय-तस०२ पंचमण. पंचवचि० काजोगि-ओरालिय का० चक्खु. अचक्खु० सुक्कले० भवसिद्धि० सण्णि-अणाहारग (१) त्ति । णवरि जोगादिसु (अजोगिसु) वेदणीय बंधगा णत्थि । __२७१. आदेसेण णेरइगेसु-धुविगाणं बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगा णस्थि । थीणगिद्धितिगं अणंताणुबंधि०४ बंधगात्ति को भावो ? ओदइगो भावो । अबंधगात्ति को भावो ? उवसमिगो वा खइगो वा खयोवसमिगो वा । सादासादवंधगा अबंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो। दोण्णं बंधगा ति० १ ओदइगो भावो । अबंधगा णत्थि । एवं चदुणोकसा० थिरादि-तिण्णियुगलं० । मिच्छत्तं बंधगा . विशेष-गोत्रादिके अबन्धक उपशान्तकषाय या क्षीणकषाय गुणस्थानमें होंगे, वहाँ औपशमिक क्षायिक भाव कहे हैं। मनुष्य त्रिक ( मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त तथा मनुष्यनी), पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, त्रस, त्रसपर्याप्तक, पंच मनोयोगी, पंच वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यक, भव्यसिद्धिक, संज्ञी तथा अनाहारकोंमे(?) ओघके समान भंग है । इतना विशेष है कि ( अ )योगादिकोंमें वेदनीय के बन्धक नहीं है (?)। विशेष-अनाहारकोंका कथन आगे पृष्ठ २७८ पर आया है, अतः यहाँ आहारकोंका पाठ सम्यक् प्रतीत होता है। वेदनीयके अबन्धक, अयोगकेवली होते हैं। इस दृष्टिसे 'जोगादिसु के स्थानपर 'अजोगी' पाठ संगत प्रतीत होता है। __२७१. आदेशसे-नारकियोंमें ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक है । अबन्धक नहीं है। स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक भाव है। अबन्धकों के कौन भाव है ? औपशमिक, क्षायिक वा क्षायोपशमिक है। साताअसाताके बन्धकों.अबन्धकोंके कौन भाव है ? औदयिक माव है। विशेष-नरक गतिमें साताका बन्धक असाताका अबन्धक होगा, असाताका बन्धक साताका अबन्धक होगा, इसलिए अन्यतरके बन्धककी अपेक्षा औदयिक भाव कहा है । दोनों के बन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक है ; अबन्धक नहीं है। इसी प्रकार चार नोकषाय, स्थिरादि तीन युगल में जानना चाहिए। मिथ्यात्वके बन्धकोंके कौन भाव है ? औदायिक है। विशेषार्थ-इस प्रसंगमें 'धवलाटीकामें महत्त्वपूर्ण शंका-समाधान किया गया है। शंका-मिथ्यात्वके बन्धक मिथ्यादृष्टिके सम्यमिथ्यात्व प्रकृति के सर्वघाती स्पर्धकोंके उदय-क्षयसे, उनके सदवस्थारूप उपशमसे तथा सम्यक्त्व प्रकृतिके देशघाती स्पर्धकोंके उदय-क्षायसे, उनके सदवस्थारूप उपशमसे अथवा अनुदय रूप उपशमसे और मिथ्यात्व प्रकृति के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयसे मिथ्यादृष्टिरूप भाव उत्पन्न होता है । अतः उसके क्षायोपशमिक भाव क्यों नहीं माना जाये ? ___ समाधान-सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व प्रकृतियोंके देशघाती स्पर्धकोंके उदय-क्षय अथवा सदवस्थारूप उपशम अथवा अनुदयरूप उपशमसे मिथ्यादृष्टि भाव नहीं होता। कारण, ऐसा मानने में दोष आता है। जो जिससे नियमतः उत्पन्न होता है, वह उसका कारण होता है। ऐसा न मानने पर अनवस्था दोष आयेगा। कदाचित् यह कहा जाये कि मिथ्यात्वके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520