Book Title: Madan Parajay Author(s): Nagdev, Lalbahaddur Shastri Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad View full book textPage 7
________________ मदनपराजय प्रविश्य त्रिभुवनसारं रत्नत्रयं प्रभूतार्थ गृहीत्वा तत्क्षणाद् गहभा-विसमूहं स्यक्रवोपशमाश्वमारुह्य विषयभटेन्द्रियभटइंदरपालिमार सौ साल पञ्चमहायतसुभटा ये सन्ति तः प्रमूसार्थ रत्नसंयुक्त राज्ययोग्यं दृष्ट्वा तस्मै तपो. राज्यं दत्तम् । एवं तस्मिश्चारित्रपुरे गुणस्थानसोपानाला कुते दुर्गवदुर्गमे सुखेन राज्यक्रियां वर्तमानोऽस्ति । अन्यसन, देव, तस्य जिनस्येदानों मोक्षपुरे विवाहो भविष्यतीति सकलजनपदोत्सवो वर्तते । तच्छ वा कामेनाभाणि-भो मोह, तत्र मोक्षपुरे कस्यात्मजा, कोशाऽस्ति ? *३ मोह अपनी अपूर्व दात सुनानेके लिए मकरध्वजको एकान्तमें ले गया। वहां उसने मकरध्वज के हाथ में एक विज्ञप्ति दी और कहा-महाराज, संज्वलनने यह विज्ञप्ति भेजी है । इसे देखिए । जैसे ही मकरध्वज ने विज्ञप्ति पढ़ो; उसके ललाटपर चिताकी रेखाएँ उभर आई। वह मोहसे कहने लगा-मोह, मैं इतना बड़ा हो गया, लेकिन इस प्रकारकी बात माज ही सुन रहा हूँ। मुझे लगता है, यह बात सच नहीं है । जब मैं तीनों लोक अधीन कर चुका हूँ तो त्रिभुवनसे अतिरिक्त यह 'जिन' नामका राजा कहाँसे आ गया ? नहीं, यह बिल्कुल सम्भव नहीं है। उत्तरमें मोह कहने लगा-देव, यह बात असम्भव नहीं, बल्कि बिल्कुल सत्य है। क्योंकि संज्वलन आपके साथ कभी भी असत्य. व्यवहार नहीं कर सकता । वह इस बातको खूब समझता है कि"विद्वज्जन, राजाको समस्त देवोंका प्रतीक मानते हैं । इसलिए राजाको देवस्वरूप ही समझना चाहिए और उसके साथ मिथ्याPage Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 195