Book Title: Kundakunda Bharti
Author(s): Kundkundacharya, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ चौदह कुंदकुंद-भारती प्रस्तावना कुंदकुंद-भारतीका यह संस्करण एक समय था कि जब लोगोंकी धारणाशक्ति अधिक थी, जिसके कारण वे सूत्ररूप संक्षिप्त वचनको हृदयंगत कर उसके द्वारा संकेतित समस्त विषयसे परिचित हो जाते थे। उस समय जो शास्त्ररचना हुई वह सूत्ररूपमें हुई। भूतबलि और पुष्पदंत महाराजने जो षट्खंडागमकी रचना की वह प्राकृतके सूत्रोंमें ही थी। अधिक विस्तार हुआ तो प्राकृत गाथाओंकी रचना शुरू हुई। सूत्ररचनाका यह क्रम न केवल धर्मशास्त्र तक सीमित रहा किन्तु न्याय, व्याकरण, योगशास्त्र और कामशास्त्र तककी रचनाएँ सूत्ररूपमें हुईं। धीरे-धीरे जब लोगोंकी धारणाशक्ति कम होने लगी तब सूत्रोंके ऊपर वृत्तियों और गाथाओंके ऊपर चूर्णियोंकी रचना शुरू हुई। समयने रुख बदला जिससे वृत्तिग्रंथोंपर भाष्य रचनाएँ होने लगीं। न्याय, व्याकरण आदि समस्त विषयोंपर भाष्य लिखे गये। ये भाष्य टीकारूपमें रचे गये जिनमें उक्त, अनुक्त और दुरुक्त विषयोंकी विस्तृत चर्चाएँ सामने आयीं। उस समयकी जनता भी इस भाष्यरूप टीकाओंको पसंद करती थी जिससे उनका प्रसार बढ़ा। यह भाष्य रचनाओंका क्रम अधिकतर विक्रम संवत् १००० तक चलता रहा। उसके बाद लोगोंकी व्यस्तता बढ़ने लगी जिससे भाष्य रचनाओंकी ओरसे उनकी रुचि घटने लगी। वे मूल ग्रंथकर्ताके भावको संक्षेपमें ही समझनेकी रुचि रखने लगी। लोगोंकी इस रुचिमें उत्तरोत्तर वृद्धि होती गयी जिसके फलस्वरूप आज अध्ययनकर्ताओंका मन टीका और भाष्यग्रंथोंसे हटकर मूलकर्ताके भावके प्रति ही जिज्ञासु हो उठा है। कुंदकुंद स्वामीकी अल्पकाय रचनाओंपर अमृतचंद्र सूरिने वैदुष्यपूर्ण टीकाएँ लिखीं। जयसेनाचार्य, पद्मप्रभ मलधारी देव और श्रुतसागर सूरिने भी इनपर काम किया है। परंतु आजका मानव अन्यान्य कार्यों में इतना अधिक व्यस्त हो गया है कि वह इन सब विस्तृत टीकाओंमें अपना उपयोग नहीं लगाना चाहता, वह संक्षेपमें ही मूलकर्ताके भावको समझना चाहता है। जैन समाजमें कुंदकुंद स्वामीके प्रति महान आदरका भाव है, उनकी रचनाएँ अमृतका घूट समझी जाती हैं। जनता उनका रसास्वादन तो करना चाहती है, पर उसके पास इतना समय नहीं है कि वह अधिक विस्तारमें पढ़ सके। फलतः यह भाव उत्पन्न हुआ कि कुंदकुंद स्वामीके समस्त ग्रंथोंका एक संकलन संक्षिप्त हिंदी अनुवादके साथ तैयार किया जाय और उसे 'कुंदकुंद-भारती' नाम दिया जाय। यह भावना तब और भी अधिक रूपमें प्रकट हुई जब कि स्वर्गीय पं. जुगलकिशोरजी मुख्यारने समन्तभद्र स्वामीकी 'स्तुतिविद्या' का काम मुझे सौंपते हुए यह लिखा कि मैं समन्तभद्र स्वामीके समस्त ग्रंथोंका एक संकलन'समन्तभद्र भारती के नामसे निकालना चाहता हूँ। मैंने श्री. मुख्यारजीकी आज्ञा शिरोधार्य कर स्तुतिविद्याका कार्य पूर्ण कर दिया। स्वयंभूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन, देवागम तथा रत्नकरण्ड श्रावकाचारपर उन्होंने स्वयं काम किया और वे जीवनके अंत-अंत तक इस कार्यमें लगे रहे। समन्तभद्रके समस्त ग्रंथोंका संकलन 'समन्तभद्र भारती' के नामसे वे निकालना चाहते थे, पर साधनोंकी न्यूनतासे वे एक संकलन नहीं निकाल सके। उन्हें जब जितना साधन मिला उसीके अनुसार वे प्रकीर्णक रूप से समन्तभद्रकी रचनाओंको प्रकाशित करते रहे और यही कारण है कि वे प्रकीर्णकके रूपमें सब ग्रंथोंको प्रकाशित कर गये हैं। ___ मुख्यारजीकी 'समन्तभद्र भारती के प्रकाशनकी भावनाको देखकर मेरे मनमें कुन्दकुन्द-भारतीके प्रकाशनकी भावना उत्पन्न हुई। 'कालिदास ग्रंथावली'के नामसे प्रकाशित कालिदासके समस्त ग्रंथोंका एक संकलन भी मेरी उक्त भावनाके उत्पन्न होनेमें कारण रहा है। उसी भावनाके फलस्वरूप मैंने कुंदकुंद स्वामीके समस्त ग्रंथोंका संक्षिप्त अनुवाद कर भी लिया था, परंतु उसके प्रकाशनकी काललब्धि नहीं आयी इसलिए वह अनुवाद रखा रहा। अब श्री. बालचंद देवचंदजी शहा, मंत्री, चा. च. आचार्य शांतिसागर दिगंबर जैन जिनवाणी जीर्णोद्धार संस्थाके सौजन्यसे इनके प्रकाशनका

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 506