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चोबीस
कुंदकुंद-भारती
व्यवहार दृष्टि उसके लिए कार्यकारी नहीं है, अतः वह अभूतार्थ कही जाती है। इसीसे आचार्य कुंदकुंदने समयप्राभृतके प्रारंभ में 'ववहारोऽभूदत्थो भूदत्थो देसिदो य सुद्धणयो' लिखकर व्यवहारको अभूतार्थ और शुद्धनय अर्थात् निश्चयको भूतार्थ कहा है।"
कुंदकुंद स्वामीने समयसार और नियमसारमें आध्यात्मिक दृष्टिसे आत्मस्वरूपका विवेचन किया है, अतः इनमें निश्चयन और व्यवहारनय ये दो भेद ही दृष्टिगत होते हैं। वस्तुके एक अभिन्न और स्वाभाविक - परनिरपेक्ष त्रैकालिक स्वभावको जाननेवाला नय निश्चयनय है और अनेक भेदरूप वस्तु तथा उसके पराश्रित - परसापेक्ष परिणमनको जाननेवाला नय व्यवहारनय है। यद्यपि अन्य आचार्यांने निश्चयनयके शुद्ध निश्चयनय और अशुद्ध निश्चयनय इस प्रकार दो भेद किये हैं तथा व्यवहारनयके सद्भूत, असद्भूत, अनुपचरित और उपचरितके भेदसे अनेक भेद स्वीकृत किये हैं। परंतु कुंदकुंद स्वामीने इन भेदोंके चक्रमें न पड़कर मात्र दो भेद स्वीकृत किये हैं। अपने गुण- पर्यायोंसे अभिन्न आत्माके त्रैकालिक स्वभावको उन्होंने निश्चय नयका विषय माना है और कर्मके निमित्तसे होनेवाली आत्माकी परिणतिको व्यवहार नयका विषय कहा है। निश्चय नय आत्मामें काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारोंको स्वीकृत नहीं करता। चूँकि वे पुद्गलके निमित्तसे होते हैं अतः उन्हें पुद्गलके मानता है। इसी तरह गुणस्थान तथा मार्गणा आदि विकल्प जीवके स्वभाव नहीं हैं अतः निश्चय नय उन्हें स्वीकृत नहीं करता। इन सबको आत्माके कहना व्यवहार नयका विषय है। निश्चय नय स्वभावको विषय करता है, विभावको नहीं। जो स्वमें स्वके निमित्तसे सदा रहता है वह स्वभाव है, जैसे जीवके ज्ञानादि। और जो स्वमें परके निमित्तसे होते हैं वे विभाव हैं, जैसे जीवमें क्रोधादि । ये विभाव, चूँकि आत्मामें ही परके निमित्तसे होते हैं इसलिए इन्हें कथंचित् आत्माके कहनेके लिए जयसेन आदि आचार्यांने निश्चय नयमें शुद्ध और अशुद्धका विकल्प स्वीकृत किया है, परंतु कुंदकुंद महाराज विभावको आत्माका मानना स्वीकृत नहीं करते, वे उसे व्यवहारका ही विषय मानते हैं। अमृतचंद्र सूरिने भी इन्हींका अनुसरण किया है।
यद्यपि वर्तमानमें जीवकी बद्धस्पृष्ट दशा है और उसके कारण रागादि विकारी भाव उसके अस्तित्वमें प्रतीत हो रहे हैं तथापि निश्चय नय जीवकी अबद्धस्पृष्ट दशा और उसके फलस्वरूप रागादि रहित वीतराग परिणति की ही अनुभूति कराता है। स्वरूपकी अनुभूति कराना इस नयका उद्देश्य है अतः वह संयोगज दशा और संयोगज परिणामों की ओरसे मुमुक्षुका लक्ष्य हटा देना चाहता है। निश्चय नयका उद्घोष है कि हे मुमुक्षु प्राणी! यदि तू अपने स्वभावकी ओर लक्ष्य नहीं करेगा तो इस संयोगदशा और तज्जन्य विकारोंको दूर करनेका तेरा पुरुषार्थ कैसे जागृत होगा ?
अध्यात्म दृष्टि आत्मामें गुणस्थान तथा मार्गणा आदिके भेदोंका अस्तित्व भी स्वीकृत नहीं करती। वह परनिरपेक्ष आत्मस्वभावको और उसके प्रतिपादक निश्चयनयको ही भूतार्थ तथा उपादेय मानती है और परसापेक्ष आत्माके विभाव और उसके प्रतिपादक व्यवहार नयको अभूतार्थ तथा हेय मानती है। इसकी दृष्टिमें एक निश्चय ही मोक्षमार्ग है, व्यवहार नहीं । यद्यपि व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्गका साधक है तथापि वह साध्य-साधकके विकल्पसे हटकर एक निश्चय मोक्षमार्गको ही अंगीकृत करती है। व्यवहार मोक्षमार्ग इसके साथ चलता है इसका निषेध यह नहीं करती।
पंचास्तिकाय और प्रवचनसारमें आचार्यने आध्यात्मिक दृष्टिके साथ शास्त्रीय दृष्टिको भी प्रश्रय दिया है, इसलिए इन ग्रंथोंमें द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंका भी वर्णन प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शनके विषयभूत जीवादि पदार्थोंका वर्णन करनेके लिए शास्त्रीय दृष्टिको अंगीकृत किये बिना काम नहीं चल सकता। इसलिए द्रव्यार्थिक नयसे जहाँ जीवके नित्य - अपरिणामी स्वभावका वर्णन किया जाता है वहाँ पर्यायार्थिक नयसे उसके अनित्य - परिणामी स्वभावका भी वर्णन किया जाता है। द्रव्य, यद्यपि गुण और पर्यायोंका एक अभिन्न अखंड पिंड है तथापि उनका अस्तित्व बतलाने के
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