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अट्ठाईस
कुंदकुंद-भारती कालमें दो पर्यायोंका सद्भाव नहीं हो सकता। इस तरह जब पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा कथन होता है तब सत्का विनाश
और असत्की उत्पत्ति होती है। 'सत्का विनाश और असत्की उत्पत्ति नहीं होती' यह द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा कथन है। संसारी जीवके साथ ज्ञानावरणादि कर्म अनादि कालसे बद्ध है, उनका अभाव करनेपर ही सिद्ध पर्याय प्रकट होती है। यहाँ संसारी पर्यायमें सिद्ध पर्यायका सद्भाव नहीं है, क्योंकि दोनोंमें सहानवस्थान नामका विरोध है, अतः संसारी पर्यायका नाश होनेपर ही असतूप सिद्ध पर्याय उत्पन्न होती है। इस तरह पर्याय दृष्टिसे सत्का विनाश और असत्का उत्पाद होता है, परंतु द्रव्यदृष्टिसे जो जीव संसारी पर्यायमें था वही सिद्ध पर्यायको प्राप्त करता है अतः क्या नष्ट हुआ और क्या उत्पन्न हुआ? कुछ भी नहीं।
तदनंतर जीवादि छह द्रव्योंके सामान्य लक्षण कहकर २६ गाथाओंमें पीठबंध समाप्त किया है। इसके बाद जीवादि द्रव्योंका विशेष व्याख्यान शुरू होता है। उसमें जीवके संसारी और सिद्ध इन दो भेदोंका वर्णन करते हुए सिद्ध जीवका लक्षण निम्न प्रकार कहा है --
कम्ममलविष्पमुक्को उ8 लोगस्स अंतमधिगंता।
सो सव्वणाणदरिसी लहदि सुहमणिंदियमणंतं ।।२८।। अर्थात् सिद्ध जीव कर्मरूपी मलसे विप्रमुक्त हैं -- सदाके लिए छूट चुके हैं, ऊर्ध्वगति स्वभावके कारण लोकके अंतको प्राप्त हैं, सबको जानने-देखनेवाले हैं और अनिंद्रिय अनंत सुखको प्राप्त हैं। जीव द्रव्यका वर्णन करनेके लिए --
जीवोत्ति हवदि चेदा उवओग विसेसिदो पहू कत्ता।
भोत्ता य देहमत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो।।२७।। इस गाथा द्वारा जीव चेतयिता, उपयोग, प्रभु, कर्ता, भोक्ता, देहमात्र, मूर्त और कर्मसंयुक्त इन नौ अधिकारोंका निरूपण किया है। इन सब अधिकारोंमें नयविवक्षासे कथन किया है।
कम्मेण विणा उदयं जीवस्स ण विज्जदे उवसमं वा।
खइयं खओवमियं तम्हा भावं तु कम्मकदं ।।५८।। इस गाथा द्वारा स्पष्ट किया है कि कोंके बिना औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव नहीं हो सकते, इसलिए ये भाव कर्मनिमित्तसे होते हैं। ७३ वीं गाथातक जीव द्रव्यका वर्णन करनेके बाद पुद्गल द्रव्यका वर्णन शुरू होता है।
प्रारंभमें पुद्गलके स्कंध, स्कंधदेश, स्कंधप्रदेश और परमाणु ये चार भेद हैं तथा चारोंके भिन्न प्रकार लक्षण हैं
खंधं सयलसमत्थं तस्स दु अद्धं भणंति देसोत्ति।
अद्धद्धं च पदेसो परमाणू चेव अविभागी।।७५।। अनंत परमाणुओंके पिंडको स्कंध, उसके आधेको देश, देशके आधेको प्रदेश और अविभागी अंशको परमाणु कहते हैं।
इस अधिकारमें पुद्गल द्रव्यके बादर बादर आदि छह भेदों तथा स्कंध और परमाणुरूप दो भेदोंका भी सुंदर वर्णन है। यह अधिकार ८२ वीं गाथा तक चलता है। उसके बाद धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश द्रव्यका वर्णन है तथा चूलिका नामक अवांतर अधिकारके द्वारा द्रव्योंकी विशेषताका वर्णन किया गया है। इसी अधिकारके अंतमें