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चौतीस
कुंदकुंद-भारती
इसी प्रसंग में जीवका स्वरूप बतलाते हुए कुंदकुंद स्वामीने कहा है।
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अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं ।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं । । ४९ ।।
अर्थात् हे भव्य ! तू आत्माको ऐसा जान कि वह रसरहित है, रूपरहित है, गंधरहित है, अव्यक्त अर्थात् स्पर्शरहित है, शब्दरहित है, अलिंगग्रहण है अर्थात् किसी खास लिंगसे उसका ग्रहण नहीं होता तथा जिसका कोई आकार निर्दिष्ट नहीं किया गया है ऐसा है, किंतु चेतनागुणवाला है।
यहाँ चेतनागुण जीवका स्वरूप है और रस, गंध आदि उसके स्वरूप नहीं हैं। परपदार्थसे उसका पृथक्त्व सिद्ध करनेके लिए ही यहाँ उनका उल्लेख किया गया है। वर्णादिक और रागादिक- सभी जीवसे भिन्न है - जीवेतर हैं। इस तरह इस जीवाजीवाधिकारमें आचार्यने मुमुक्षु प्राणीके लिए परपदार्थसे भिन्न जीवके शुद्ध स्वरूपका दर्शन कराया है। साथ ही उससे संबंध रखनेवाले पदार्थको अजीव दिखलाया है। यह जीवाजीवाधिकार ३९ वीं गाथासे लेकर ६८ वीं गाथातक चला है।
कर्तृकर्माधिकार
जीव और अजीव (पौद्गलिक कर्म) अनादि कालसे संबद्ध अवस्थाको प्राप्त हैं, इसलिए प्रश्न होना स्वाभाविक है कि इनके अनादि संबंधका कारण क्या है? जीवने कर्मको किया या कर्मने जीवको किया? यदि जीवने कर्मको किया तो जीवमें ऐसी कौनसी विशेषता थी कि जिससे उसने कर्मको किया? यदि बिना विशेषताके ही किया तो सिद्ध महाराज भी कर्मको करें, इसमें क्या आपत्ति है? और कर्मने जीवको किया तो कर्ममें ऐसी विशेषता कहाँसे आयी कि वे जीवको कर सकें -- उसमें रागादिक भाव उत्पन्न कर सकें। बिना विशेषताके ही यदि कर्म रागादिक करते हैं तो कर्मके अस्तित्वकालमें सदा रागादिक उत्पन्न होना चाहिए। इस प्रश्नावलीसे बचनेके लिए यह समाधान किया गया है कि जीवके रागादि परिणामोंसे पुद्गल द्रव्यमें कर्मरूप परिणमन होता है और पुद्गलके कर्मरूप परिणमन उनकी उदयावस्थाका निमित्त पाकर आत्मामें रागादिक भाव उत्पन्न होते हैं। इस समाधानमें जो अन्योन्याश्रय दोष आता है उसे अनादि संयोग मानकर दूर किया गया है। इस कर्तृकर्माधिकारमें कुंदकुंद स्वामीने इसी बातका बड़ी सूक्ष्मतासे वर्णन किया है।
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अमृतचंद्र स्वामीने कर्ता, कर्म और क्रियाका लक्षण लिखते हुए कहा है. यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म ।
या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया । । ५१ ।।
अर्थात् जो परिणमन करता है वह कर्ता कहलाता है, जो परिणाम होता है उसे कर्म कहते हैं और जो परिणति होती है वह क्रिया कहलाती है। वास्तवमें ये तीनों ही भिन्न नहीं हैं, एक द्रव्यकी ही परिणति है।
निश्चय नय, कर्तृ - कर्मभाव उसी द्रव्यमें मानता है जिसमें व्याप्य व्यापक भाव अथवा उपादान- उपादेय भाव होता है। जो कार्यरूप परिणत होता है उसे व्यापक या उपादान कहते हैं और जो कार्य होता है उसे व्याप्य या उपादेय कहते हैं। 'मिट्टीसे घट बना' यहाँ मिट्टी व्यापक या उपादान है और घट व्याप्य या उपादेय है। यह व्याप्य व्यापक भाव या उपादानउपादेय भाव सदा एक द्रव्यमें ही होता है, दो द्रव्योंमें नहीं, क्योंकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप परिणमन त्रिकालमें भी नहीं कर सकता। जो उपादानके कार्यरूप परिणमनमें सहायक होता है वह निमित्त कहलाता है, जैसे मिट्टी के घटाकार परिणमनमें कुंभकार तथा दंड, चक्र आदि। और उस निमित्तकी सहायतासे उपादानमें जो कार्य होता है वह नैमित्तिक कहलाता है, जैसे कुंभकार आदिकी सहायतासे मिट्टीमें हुआ घटाकार परिणमन। यह निमित्तनैमित्तिक भाव दो विभिन्न द्रव्योंमें भी बन जाता