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सैंतीस ओर इसका लक्ष्य बन जावे तो कठिन नहीं है। दया, दान, व्रताचरण आदिके भावलोकमें पुण्य कहे जाते हैं और हिंसादि पापोंमें प्रवृत्तिरूप भाव पाप कहे जाते हैं। पुण्यके फलस्वरूप पुण्यप्रकृतियोंका बंध होता है और पापके फलस्वरूप पाप प्रकृतियोंका। जब उन पुण्य और पाप प्रकृतियोंका उदयकाल आता है तब इस जीवको सुख दुःखका अनुभव होता है। परमार्थसे विचार किया जावे तो पुण्य और पाप दोनों प्रकारकी प्रकृतियोंका बंध इस जीवको संसारमें ही रोकनेवाला है। इसलिए इनसे बचकर उस तृतीयावस्थाको प्राप्त करनेका प्रयास करना चाहिए जो पुण्य और पाप दोनोंके विकल्पसे परे है। उस तृतीयावस्थामें पहुँचनेपर ही जीव कर्मबंधसे बच सकता है और कर्मबंधसे बचनेपर ही जीवका वास्तविक कल्याण हो सकता है। उन्होंने कहा है
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प्रस्तावना
परमट्टबाहिरा जे अण्णाणेण पुण्णमिच्छंति ।
संसारगमण हेदुं वि मोक्खहेउं अजाणता । । १५४ ।।
जो परमार्थ बाह्य हैं अर्थात् ज्ञानात्मक आत्माके अनुभवसे शून्य है वे अज्ञानसे संसारगमनका कारण होनेपर भी पुण्यकी इच्छा करते हैं तथा मोक्षके कारणको जानते भी नहीं हैं।
यहाँ आचार्य महाराजने कहा है कि जो मनुष्य परमार्थज्ञानसे रहित हैं वे अज्ञानवश मोक्षका साक्षात् कारण जो राग परिणति है उसे तो जानते नहीं हैं और पुण्यको मोक्षका साक्षात् कारण समझकर उसकी उपासना करते हैं जब कि यह पुण्य संसारकी ही प्राप्तिका कारण है। यहाँ पुण्यरूप आचारण का निषेध नहीं है किंतु पुण्याचरणको मोक्षका साक्षात् मार्ग माननेका निषेध किया है। ज्ञानी जीव अपने पदके अनुरूप पुण्याचरण करता है और उसके फलस्वरूप प्राप्त हुए इंद्र, चक्रवर्ती आदिके वैभवका उपयोग भी करता है परंतु श्रद्धामें यही भाव रखता है कि हमारा यह पुण्याचरण मोक्षका साक्षात् कारण नहीं है तथा उसके फलस्वरूप जो वैभव प्राप्त होता है वह मेरा स्वपद नहीं है। यहाँ इतनी बात ध्यानमें रखनेके योग्य है कि जिस प्रकार पापाचरण बुद्धिपूर्वक छोड़ा जाता है उस प्रकार बुद्धिपूर्वक पुण्याचरण नहीं छोड़ा जाता, वह तो शुद्धोपयोगकी भूमिकामें प्रविष्ट होनेपर स्वयं छूट जाता है।
जिनागमका कथन नयसापेक्ष होता है अतः शुद्धोपयोगकी अपेक्षा शुभोपयोगरूप पुण्यको त्याज्य कहा गया है परंतु अशुभोपयोगरूप पापकी अपेक्षा उसे उपादेय बताया गया है। शुभोपयोगमें यथार्थ मार्ग जल्दी मिल सकता है, परंतु अशुभोपयोगमें उसकी संभावना ही नहीं है। जैसे प्रातःकालसंबंधी सूर्यलालिमाका फल सूर्योदय है और सायंकालसंबंधी सूर्यलालिमाका फल सूर्यास्त है । इसी आपेक्षिक कथनको अंगीकृत करते हुए श्री कुंदकुंद स्वामीने मोक्षपाहुड में कहा है
वर वयवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ णिरय इयरेहिं । छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं ।। २५ ।।
और इसी अभिप्रायसे पूज्यपाद स्वामीने भी इष्टोपदेश में शुभोपयोगरूप व्रताचरण से होनेवाले दैवपदको कुछ अच्छा कहा है और अशुभोपयोगरूप पापाचरण से होनेवाले नारकपदको बुरा कहा है -
वरं व्रतैः पदं देवं नाव्रतैर्बत नारकम् । छायातपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान् ।।२ ।।
अर्थात् व्रतोंसे देवपद पाना कुछ अच्छा है परंतु अव्रतोंसे नारकपद पाना अच्छा नहीं है। क्योंकि छाया और धूप में बैठकर प्रतीक्षा करनेवालोंमें महान् अंतर है।
अशुभोपयोग सर्वथा त्याज्य ही है और शुद्धोपयोग उपादेय ही है। परंतु शुभोपयोग पात्रभेदकी अपेक्षा हेय और