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प्रस्तावना
उनतीस
काल द्रव्यका वर्णन कर चुकनेके बाद पंचास्तिकायोंके जाननेका फल बहुत ही हृदयग्राही शब्दोंमें व्यक्त किया है।
एवं पवयणसारं पंचत्थिसंगहं वियाणित्ता।
जो मुयदि रागदोसे सो गाहदि दुक्खपरिमोक्खं ।।१०३।। इस तरह आगमके सारभूत पंचास्तिकाय संग्रहको जानकर जो राग और द्वेषको छोड़ता है वह दुःखोंसे छुटकारा पाता है।
प्रथम स्कंध १०४ गाथाओंमें पूर्ण हुआ है। तदनंतर द्वितीय स्कंधमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको मोक्षमार्ग बतलाकर इन तीनोंका स्पष्ट स्वरूप बतलाया है। इस द्वितीय श्रुतस्कंधका नाम नवपदार्थाधिकार है। अर्थात् इसमें जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, बंध, निर्जरा और मोक्ष इन नौ पदार्थोंका वर्णन किया है। प्रत्येक पदार्थका वर्णन यद्यपि संक्षिप्त है तथापि इतना सारगर्भित है कि सारभूत समस्त प्रतिपाद्य विषयोंका उसमें पूर्ण समावेश पाया जाता है। निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्गका वर्णन करते हुए निश्चयनय और व्यवहारनयका उत्तम सामंजस्य बैठाया है। अमृतचंद्र स्वामीने इस प्रकरणका समारोप करते हुए लिखा है -- 'अतएवोभयनयायत्ता पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तनेति' अर्थात् जिनेंद्र भगवानकी तीर्थप्रवर्तना दोनों नयोंके अधीन है। यहाँ निश्चय मोक्षमार्गको साध्य तथा व्यवहार मोक्षमार्गको साधक बताया है। यही भाव आपने 'तत्त्वार्थसार' ग्रंथमें भी प्रकट किया है --
निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः। तत्राद्यः साध्यरूप: स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम्।।२।। श्रद्धानाधिगमोपेक्षाः शुद्धस्य स्वात्मनो हि याः। सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा मोक्षमार्गः स निश्चयः।।३।। श्रद्धानादिगमोपेक्षा याः पुनः स्युः परात्मनाम्।
सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा स मार्गो व्यवहारतः।।४।। -- नवमाधिकार अर्थात् निश्चय और व्यवहारके भेदसे मोक्षमार्ग दो प्रकारका है। उसमें पहला -- निश्चय साध्यरूप है और दूसरा -- व्यवहार उसका साधन है। शुद्ध स्वात्म द्रव्यकी श्रद्धा ज्ञान और चारित्ररूप निश्चय मोक्षमार्ग है तथा परात्म द्रव्यकी श्रद्धा ज्ञान और चारित्र रूप व्यवहार मोक्षमार्ग है। नियमसारमें कुंदकुंद स्वामी ने भी निश्चय और व्यवहारके भेदसे नियम -- सम्यग्दर्शनादिका द्विविध निरूपण किया है। आध्यात्मिक दृष्टि निश्चय ही मोक्षमार्ग मानती है। वह मोक्षमार्गका निरूपण, निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो प्रकारका मानती है, परंत मोक्षमार्गको एक निश्चयरूप ही स्वीकार करती है। निश्चयको ही स्वीकृत करती है इसका फलितार्थ यह नहीं है कि वह व्यवहार मोक्षमार्गको छोड़ देती है। उसका अभिप्राय यह है कि निश्चयके साथ व्यवहार तो नियमसे होता ही है, पर व्यवहारके साथ निश्चय भी हो और न भी हो। निश्चय मोक्षमार्ग कार्यका साक्षात् जनक है इसलिए उसे मोक्षमार्ग स्वीकृत किया गया है, परंतु व्यवहार मोक्षमार्ग परंपरासे कार्यका जनक है इसलिए उसे मोक्षमार्ग स्वीकृत नहीं किया है। शास्त्रीय दृष्टि परंपरासे कार्यजनकको भी कारण स्वीकृत करती है अतः उसकी दृष्टिमें व्यवहारको भी मोक्षमार्ग स्वीकृत किया गया है।
स्वसमय और परसमयका सक्ष्मतम वर्णन करते हए कितना संदर कहा है --
जस्स हिदयेणुमत्तं वा परदव्वम्हि विज्जदे रागो। सो ण वि जाणदि समयं सगस्स सव्वागमधरो वि।।१६७।।