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प्रस्तावना
तेईस
दूसरेको गौण कर विवक्षानुसार क्रमसे ग्रहण करता है। नयोंका निरूपण करनेवाले आचार्योंने उनका शास्त्रीय और आध्यात्मिक दृष्टिसे विवेचन किया है। शास्त्रीय दृष्टिकी नय विवेचनामें नयके द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक तथा उनके नैगमादि सात भेद निरूपित किये गये हैं और आध्यात्मिक दृष्टिमें निश्चय तथा व्यवहार नयका निरूपण है। यहाँ द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों ही निश्चयमें समा जाते हैं और व्यवहार में उपचारका कथन रह जाता है। शास्त्रीय दृष्टिमें वस्तुस्वरूपकी विवेचनाका लक्ष्य रहता है और आध्यात्मिक दृष्टिमें उस नयविवेचनाके द्वारा आत्माके शुद्ध स्वरूपको प्राप्त करनेका अभिप्राय रहता है। इन दोनों दृष्टियोंका अंतर बतलाते हुए 'कुंदकुंद प्राभृत संग्रह' की प्रस्तावनामें पृष्ठ ८२ पर श्रीमान् सिद्धांताचार्य पं. कैलाशचंद्रजीने निम्नांकित पंक्तियाँ बहुतही महत्त्वपूर्ण लिखी हैं --
"शास्त्रीय दृष्टि वस्तुका विश्लेषण करके उसकी तह तक पहुँचनेकी चेष्टा करती है। उसकी दृष्टिमें निमित्त कारणके व्यापारका उतना ही मूल्य है जितना उपादान कारणके व्यापारका। और परसंयोगजन्य अवस्था भी उतनी ही परमार्थ है जितनी स्वाभाविक अवस्था। जैसे उपादान कारणके बिना कार्य नहीं होता वैसे ही निमित्त कारणके बिना भी कार्य नहीं होता। अतः कार्यकी उत्पत्तिमें दोनोंका सम व्यापार है। जैसे मिट्टीके बिना घट उत्पन्न नहीं होता वैसे ही कुम्हारचक्र आदिके बिना भी घट उत्पन्न नहीं होता। ऐसी स्थितिमें वास्तविक स्थितिका विश्लेषण करनेवाली शास्त्रीय दृष्टि किसी एक पक्षमें अपना फैसला कैसे दे सकती है? इसी तरह मोक्ष जितना यथार्थ है संसार भी उतना ही यथार्थ है और संसार जितना यथार्थ है उसके कारणकलाप भी उतने ही यथार्थ हैं। संसारदशा न केवल जीवकी अशुद्ध दशाका परिणाम है और न केवल पुद्गलकी अशुद्ध दशाका परिणाम है। किंतु जीव और पुद्गलके मेलसे उत्पन्न हुई अशुद्ध दशाका परिणाम है। अतः शास्त्रीय दृष्टिसे जितना सत्य जीवका अस्तित्व है और जितना सत्य पुद्गलका अस्तित्व है उतना ही सत्य उन दोनोंका मेल और संयोगज विकार भी है। वह सांख्यकी तरह पुरुषमें आरोपित नहीं है किंतु प्रकृति और पुरुषके संयोगजन्य बंधका परिणाम है, अतः शास्त्रीय दृष्टिसे जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, पुण्य, पाप और मोक्ष सभी यथार्थ और सारभूत हैं। अतः सभीका यथार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। और चूँकि उसकी दृष्टिमें कार्यकी उत्पत्तिमें निमित्तकारण भी उतनाही आवश्यक है जितना कि उपादान कारण, अतः आत्मप्रतीतिमें निमित्तभूत देव शास्त्र और गुरु वगैरहका श्रद्धान भी सम्यग्दर्शन है। उसमें गुणस्थान भी है, मार्गणास्थान भी है -- सभी है। शास्त्रीय दृष्टिकी किसी वस्तुविशेषके साथ कोई पक्षपात नहीं है। वह वस्तुस्वरूपका विश्लेषण किसी हित अहितको दृष्टिमें रखकर नहीं करती।"
आध्यात्मिक दृष्टिका विवेचन करते हुए पृष्ठ ८३ पर लिखा है --
"शास्त्रीय दृष्टिके सिवाय एक दृष्टि आध्यात्मिक भी है। उसके द्वारा आत्मतत्त्वको लक्ष्यमें रखकर वस्तु का विचार किया जाता है। जो आत्माके आश्रित हो उसे अध्यात्म कहते हैं। जैसे वेदांती ब्रह्मको केंद्र में रखकर जगत्के स्वरूपका विचार करते हैं वैसे ही अध्यात्म दृष्टि आत्माको केंद्रमें रखकर विचार करती है। जैसे वेदांत में ब्रह्म ही परमार्थ सत् है और जगत् मिथ्या है, वैसे ही अध्यात्मविचारणामें एकमात्र शुद्ध बुद्ध आत्मा ही परमार्थ सत् है और उसकी अन्य सब दशाएँ व्यवहार सत्य हैं। इसीसे शास्त्रीय क्षेत्रमें जैसे वस्तुतत्त्वका विवेचन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंके द्वारा किया जाता है वैसे ही अध्यात्ममें निश्चय और व्यवहार नयके द्वारा आत्मतत्त्वका विवेचन किया जाता है और निश्चय दृष्टिको परमार्थ और व्यवहार दृष्टिको अपरमार्थ कहा जाता है। क्योंकि निश्चय दृष्टि आत्माके यथार्थ शुद्ध स्वरूपको दिखलाती है और व्यवहार दृष्टि अशुद्ध अवस्थाको दिखलाती है। अध्यात्मी मुमुक्षु शुद्ध आत्मतत्त्वको प्राप्त करना चाहता है अतः उसकी प्राप्तिके लिए प्रथम उसे उस दृष्टिकी आवश्यकता है जो आत्माके शुद्ध स्वरूपका दर्शन करा सकनेमें समर्थ है। ऐसी दष्टि निश्चय दष्टि है अतः ममक्षके लिए वही दृष्टि भूतार्थ है। जिससे आत्माके अशुद्ध स्वरूपका दर्शन होता है वह