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प्रस्तावना
इक्कीस
जह फणिराओ रेहइ, फणिमणिमाणिक्ककिरणविप्फुरिओ। तह विमलदसणधरो, जिणभत्ती पवयणो जीवो।।१४३।। जह तारायणसहियं, ससहरबिंबं खमंडले विमले। भाविय तह वयविमलं, जिणलिंगं दंसणविसुद्धं ।।१४४ ।। जह सलिलेण ण लिप्पइ, कमलिणिपत्तं सहावपयडीए।
तह भावेण ण लिप्पइ, कसायविसए हि सुप्पुरिसो।।१५२।। -- भावप्राभृत रूपकालंकारकी बहार देखिए --
जिणवरचरणांबुरुहं, णमंति जे परमभत्तिरायण। ते जम्मवेलिमूलं, खणंति वरभावसत्थेण।।१५१।। ते धीरवीरपुरिसा, खमदमखग्गेण विष्फुरतेण। दुज्जयपवलबलुद्धरकसायमडणिज्जिया जेहिं ।।१५४ ।। मायावेल्लि असेसा, मोहमहातरुवरम्मि आरूढा।
विसयविसपुष्फफुल्लिय, लुणंति मुणि णाणसत्थेहिं ।।१५६।। -- भावप्राभृत कहींपर कूटक पद्धतिका भी अनुसरण किया है। यथा,
तिहि तिणि धरवि णिच्चं, तियरहिओ तह तिएण परियरिओ।
दो दोस विप्पमक्को. परमप्पा झायए जोई।।४४।।-- मोक्षप्राभत अर्थात् तीनके द्वारा (तीन गुप्तियोंके द्वारा) तीनको (मन वचन कायको) धारण कर निरंतर तीनसे (शल्यत्रयसे) रहित, तीनसे (रत्नत्रयसे) सहित और दो दोषों (राग द्वेष) मुक्त रहनेवाला योगी परमात्माका ध्यान करता है। कुंदकुंदका शिलालेखों तथा उत्तरवर्ती ग्रंथोंमें उल्लेख
कुंदकुंदस्वामी अत्यंत प्रसिद्ध और सर्वमान्य आचार्य थे। अतः इनका उल्लेख अनेक शिलालेखोंमें मिलता है तथा इनके उत्तरवर्ती ग्रंथकारोंने बड़ी श्रद्धाके साथ इनका संस्मरण किया है। 'जैन संदेश के शोधांकोंके आधारपर कुछ उल्लेखोंका यहाँ संकलन किया जाता है।
श्रीमतो वर्धमानस्य वर्धमानस्य शासने। श्री कोण्डकुन्दनामाभून्मूलसङ्घाग्रणीर्गणो।। -- श्र. बे. शि. ५५/६९/४९२ वन्द्यो विभुर्भुवि न कैरिह कोण्डकुन्दः कुन्दप्रभाप्रणयिकीर्तिविभूषिताशः। यश्चारुचारणकराम्बुजचञ्चरीकश्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयत: प्रतिष्ठाम्।। -- श्र. बे. शि. ५४/६७ तस्यान्वये भूविदिते बभूव यः पद्मनन्दिप्रथमाभिधानः। श्रीकोण्डकुन्दादिमुनीश्वराख्यस्तत्संयमादुद्गतचारणद्धिः ।।
-- श्र. बे. शि. ४०/६० श्रीपद्मनन्दीत्यनवद्यनामा ह्याचार्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्दः। द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्रसञ्जातसुचारणद्धिः।
-- श्र.बे. शि. ४२,४३, ४७,५०