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प्रस्तावना
उन्नीस
कुंदकुंद स्वामीका समय
कुंदकुंद स्वामीके समयनिर्धारण पर 'प्रवचनसार' की प्रस्तावनामें डॉ. ए.एन्. उपाध्येने, 'समंतभद्र' की प्रस्तावनामें स्व. जुगलकिशोरजी मुख्यारने, 'पंचास्तिकाय' की प्रस्तावनामें डॉ. ए. चक्रवर्तीने तथा 'कुंदकुंद प्राभृत संग्रह' की प्रस्तावनामें श्री. पं. कैलाशचंद्रजी शास्त्रीने विस्तारसे चर्चा की है। लेखविस्तारके भयसे मैं उन सब चर्चाओंके अवतरण नहीं देना चाहता। जिज्ञासु पाठकोंको तत् तत् ग्रंथोंसे जाननेकी प्रेरणा करता हुआ कुंदकुंद स्वामीके समय निर्धारणके विषयमें प्रचलित मात्र दो मान्यताओंका उल्लेख कर रहा हूँ। एक मान्यता प्रो. हार्नले द्वारा संपादित नंदिसंघकी पट्टावलियोंके आधारपर यह
यह है कि कुंदकुंद विक्रमकी पहली शताब्दीके विद्वान् थे। वि. स. ४९ में वे आचार्यपदपर प्रतिष्ठित हुए, ४४ वर्षकी अवस्थामें उन्हें आचार्य पद मिला, ५१ वर्ष १० महीने तक वे उस पदपर प्रतिष्ठित रहे और उनकी कुल आयु ९५ वर्ष १० माह १५ दिनकी थी। डॉ. ए. चक्रवर्तीने पंचास्तिकायकी प्रस्तावनामें अपना यही अभिप्राय प्रकट किया है। और दूसरी मान्यता यह है कि वे विक्रमकी दूसरी शताब्दीके उत्तरार्ध अथवा तीसरी शताब्दीके प्रारंभके विद्वान् थे। जिसका समर्थन श्री. नाथूरामजी प्रेमी तथा पं. जुगलकिशोरजी मुख्यार आदि विद्वान् करते आये हैं। कुंदकुंदके ग्रंथ और उनकी महत्ता
दिगंबर जैन ग्रंथोंमें कुंदकुंदाचार्य द्वारा रचित ग्रंथ अपना अलग प्रभाव रखते हैं। उनकी वर्णन शैली ही इस प्रकारकी है कि पाठक उससे वस्तुरूपका अनुगम बड़ी सरलतासे कर लेता है। व्यर्थक विस्तारसे रहित, नपे-तुले शब्दोंमें किसी बातको कहना इन ग्रंथोंकी विशेषता है। कुंदकुंदकी वाणी सीधी हृदयपर असर करती है। निम्नांकित ग्रंथ कुंदकुंद स्वामीके द्वारा रचित निर्विवादरूपसे माने जाते हैं तथा जैन समाजमें उनका सर्वोपरि मान है। १. पंचास्तिकाय, २. समयसार, ३. प्रवचनसार, ४. नियमसार, ५. अष्टपाहुड (दंसणपाहुड, चरित्तपाहुड, सुत्तपाहुड, बोधपाहुड, भावपाहुड, मोक्खपाहुड, सीलपाहुड और लिंगपाहुड), ६. बारसणुपेक्खा और भत्तिसंगहो।
इनके सिवाय 'रयणसार' नामका ग्रंथ भी कुंदकुंद स्वामीके द्वारा रचित प्रसिद्ध है। परंतु उसके अनेक पाठभेद देखकर विद्वानोंका मत है कि यह कुंदकुंदके द्वारा रचित नहीं है अथवा इसके अंदर अन्य लोगोंकी गाथाएँ भी सम्मिलित हो गयी हैं। भांडारकर रिसर्च इन्स्टिट्यूट, पूनासे हमने १८२५ संवत्की हस्तलिखित प्रति बुलाकर उससे मुद्रित रयणसारकी गाथाओंका मिलान किया तो बहुत अंतर मालूम हुआ। मुद्रित प्रतिमें बहुतसी गाथाएँ छूटी हुई हैं तथा नवीन गाथाएँ मुद्रित हैं। उस प्रतिपर रचयिता का नाम नहीं है। उधर सूचीमें भी यह प्रति अज्ञात लेखकके नामसे दर्ज है। चर्चा आनेपर पं. परमानंद शास्त्रीने बतलाया कि हमने ७०-८० प्रतियाँ देखी हैं, सबका यही हाल है। मुद्रित प्रतिमें अपभ्रंशका एक दोहा भी शामिल हो गया है तथा कुछ इस अभिप्रायकी गाथाएँ हैं जिनका कुंदकुंदकी विचारधारासे मेल नहीं खाता। यही कारण है कि मैंने इस संग्रहमें उसका संकलन नहीं किया है। प्रसिद्धिको देखकर गाथाओंका अनवाद शरू किया था और आधेसे अधिक गाथाओंका अनुवाद हो भी चुका था, पर मुद्रित प्रतिके पाठोंपर संतोष न होनेसे पूनासे हस्तलिखित प्रति बुलायी। मिलान करनेपर जब भारी भेद देखा तब उसे सम्मिलित करनेका विचार छोड़ दिया। इंद्रनंदिके श्रुतावतारके अनुसार षट्खंडागमके आद्य भागपर कुंदकुंद स्वामीके द्वारा रचित परिकर्म ग्रंथका उल्लेख मिलता है। इस ग्रंथका उल्लेख षट्खंडागमके विशिष्ट पुरस्कर्ता आचार्य वीरसेनने अपनी टीकामें कई जगह किया है। इससे पता चलता है कि उनके समय तक तो वह उपलब्ध रहा। परंतु आजकल उसकी उपलब्धि नहीं है। शास्त्रभांडारों, खासकर दक्षिणके शास्त्रभांडारों में इसकी खोज की जानी चाहिए। मूलाचार भी कुंदकुंद स्वामीके द्वारा रचित माना जाने लगा है क्योंकि उसकी अंतिम पुष्पिकामें 'इति मूलाचार्य विवृतौ द्वादशोऽध्यायः। कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीत मूलाचाराख्य विवृतिः । कृतिरियं वसुनन्दिनः