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कुंदकुंद-भारती
कुमारनंदि सिद्धांतदेव लिखा है और नंदिसंघकी पट्टावलीमें उन्हें जिनचंद्रका शिष्य बतलाया है। परंतु कुंदकुंदाचार्यने बोधपाहुडके अंतमें अपने गुरुके रूपमें भद्रबाहुका स्मरण करते हुए अपने आपको भद्रबाहुका शिष्य बतलाया है। बोधप की गाथाएँ इस प्रकार हैं
अठारह
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सद्दविआरो हूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं । सो तह कहियं णाणं सीसेण य भद्दबाहुस्स । । ६१ ।। बारस अंगवियाणं चउदस पुव्वंग विल वित्थरणं । सुयणाणि भद्दबाहू गमयगुरू भयवओ जाओ । । ६२ ।।
प्रथम गाथामें कहा गया है कि जिनेंद्र भगवान महावीरने अर्थरूपसे जो कथन किया है वह भाषासूत्रोंमें शब्दविकारको प्राप्त हुआ अर्थात् अनेक प्रकारके शब्दोंमें ग्रथित किया गया है। भद्रबाहुके शिष्यने उसे उसी रूपमें जाना और कथन किया है। द्वितीय गाथामें कहा गया है कि बारह अंगों और चौदह पूर्वोके विपुल विस्तारके वेत्ता गमक गुरु भगवान् श्रुतकेवली भद्रबाहु जयवंत हों |
ये दोनों गाथाएँ परस्परमें संबद्ध हैं। पहली गाथामें अपने आपको जिन भद्रबाहुका शिष्य कहा है दूसरी गाथामें उन्हींका जयघोष किया है। यहाँ भद्रबाहुसे अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ही ग्राह्य जान पड़ते हैं, क्योंकि द्वादश अंग और चतुर्दश पूर्वका विपुल विस्तार उन्हींसे संभव था । इसका समर्थन समयप्राभृतके पूर्वोक्त प्रतिज्ञावाक्य 'वंदित्तु सव्वसिद्धे' से भी होता है। जिसमें उन्होंने कहा है कि मैं श्रुतकेवलीके द्वारा प्रतिपादित समयप्राभृतको कहूँगा । श्रवणबेलगोलाके अनेक शिलालेखों में यह उल्लेख मिलता है कि अपने शिष्य चंद्रगुप्तके साथ भद्रबाहु यहाँ पधारे और वहीं एक गुफा में उनका स्वर्गवास हुआ। इस घटनाको आज ऐतिहासिक तथ्यके रूपमें स्वीकृत किया गया है।
अब विचारणीय बात यह रहती है कि यदि कुंदकुंदको अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहुका साक्षात् शिष्य माना जाता है तो वे विक्रम शताब्दीसे ३०० वर्ष पूर्व ठहरते हैं और उस समय जबकि ग्यारह अंग और पूर्वोके जानकार आचार्योंकी परंपरा विद्यमान थी तब उनके रहते हुए कुंदकुंद स्वामीकी इतनी प्रतिष्ठा कैसे संभव हो सकती है और कैसे उनका अन्वय चल सकता है? इस स्थितिमें कुंदकुंदको उनका परंपरा शिष्य ही माना जा सकता है, साक्षात् नहीं । श्रुतकेवली भद्रबाहु के द्वारा उपदिष्ट तत्त्व उन्हें गुरुपरंपरासे प्राप्त रहा होगा, उसीके आधारपर उन्होंने अपने आपको भद्रबाहुका शिष्य घोषित किया है। बोधपाहुडके संस्कृत टीकाकार श्रुतसागरसूरिने भी 'भद्दबाहुसीसेण' का अर्थ विशाखाचार्य कर कुंदकुंदको उनका परंपरा शिष्य ही स्वीकृत किया है। श्रुतसागर सूरि की पंक्तियाँ निम्न प्रकार हैं
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भद्रबाहुशिष्येण अर्हद्बलिगुप्तिगुप्तापरनामद्वयेन विशाखाचार्यनाम्नां दशपूर्वधारिणामेकादशाचार्याणां मध्ये प्रथमेन ज्ञातम् ।
इन पंक्तियों द्वारा कहा गया है कि यहाँ भद्रबाहुके शिष्यसे विशाखाचार्यका ग्रहण है। इन विशाखाचार्य अर्हद्बलि और गुप्तिगुप्त ये दो नाम और भी हैं तथा ये दश पूर्वके धारक ग्यारह आचार्योंके मध्य प्रथम आचार्य थे। भद्रबाहु अंतिम श्रुतकेवली थे जैसा कि श्रुतसागरसूरिने ६२ वीं गाथाकी टीकामें कहा है 'पञ्चानां श्रुतकेवलिनां मध्येऽन्त्यो भद्रबाहुः'
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अर्थात् भद्रबाहु पाँच श्रुतकेवलियोंमें अंतिम श्रुतकेवली थे। अतः उनके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वको उनके शिष्य विशाखाचार्यने जाना । उसीकी परंपरा आगे चलती रही। गमकगुरुका अर्थ श्रुतसागर सूरिने उपाध्याय किया है सो विशाखाचार्य के लिए यह विशेषण उचित ही है।