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है । इस प्रणाली में द्वादश राशियों की संज्ञाएँ, उनकी भ्रमणवीथियाँ, उनकी विशेष अवस्थाएँ, उनकी किरणें, उनका भोजन, उनका वाहन, उनका आकार-प्रकार, उनकी योजनसंख्या, उनकी आयु, उनका उदय, उनकी धातु, उनका रस, उनका स्थान आदि सैकड़ों संज्ञाओं के आधार पर नाना विचारविनिमयों द्वारा फलादेश का कथन किया गया है । यद्यपि उस लग्नप्रणाली का मूलाधार भी समय का शुभाशुभत्व ही है, किन्तु इसमें विचार-विमर्श करने की विधि त्रैलोक्यप्रकाश, भुवनदीपक, प्रश्नचतुर्विशिका आदि ग्रन्थों से भिन्न है ।
दक्षिण भारत में जैनाचार्यों में इस प्रणाली का प्रचार दसवीं शती से पन्द्रहवीं शती तक पाया जाता है। इस प्रणाली के प्रश्नसम्बन्धी दस-बारह ग्रन्थ मिलते हैं । प्रश्नदीपक, प्रश्नप्रदीप, ज्ञानप्रदीप, रत्नदीपक, प्रश्नरत्न आदि ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते हैं । यदि अन्वेषण किया जाए, तो इसी प्रणाली के और भी ग्रन्थ मिल सकते हैं । सोलहवीं शती में दक्षिण में भी उत्तरवाली लग्नप्रणाली मिलती है । ज्योतिषसंग्रह, ज्योतिषरत्न ग्रन्थों के देखने से मालूम होता है कि चौदहवीं और पन्द्रहवीं शती में ही उत्तर-दक्षिण की लग्न- प्रक्रिया एक हो गयी थी । उपर्युक्त दोनों ग्रन्थों के मंगलाचरण जैन हैं, रचनाशैली द्राविड़ है । कहीं-कहीं आरूढ़, क्षत्र आदि संज्ञाएँ भी मिलती हैं; पर ग्रहों और भावों के सम्बन्ध में कोई अन्तर नहीं है । इन प्रश्नप्रणालियों के साथ-साथ रमल प्रश्नप्रणाली भी जैनाचार्यों में प्रचलित थी । कालकाचार्य रमलशास्त्र के बड़े भारी ज्ञाता थे । उन्होंने रमल प्रक्रिया में कई नवीन संशोधन किये थे । कुछ विद्वान् तो यहाँ तक मानते हैं कि रमलप्रणाली के भारत में मूल प्रचारक कालकाचार्य ही थे। उन्होंने ही इस प्रणाली का प्रचार संस्कृत भाषा में निबद्ध कर आर्यों में किया।
रमलशास्त्र पर मेघविजय, भोजसागर, विजयदानसूरि के ग्रन्थ मिलते हैं । इन ग्रन्थों में पाशक और प्रस्तारज्ञान, तत्त्वज्ञान, शाकुनक्रम, दशक्रम, साक्षज्ञान, वर्णज्ञान, षोडश भाव फल, शून्यचालन, दिनज्ञान, प्रश्नज्ञान, भूमिज्ञान, धनमानपरीक्षा आदि विषय वर्णित हैं । दिगम्बर जैनाचार्यों में रमलशास्त्र का प्रचार नहीं पाया जाता है। उन्होंने रमल के स्थान पर 'पाशाकेवली' नामक प्रणाली का प्रचार किया है। संस्कृत भाषा में सकलकीर्ति, गर्गाचार्य, सुग्रीव मुनि आदि के 'पाशाकेवली' ग्रन्थ मिलते हैं। इन ग्रन्थों को देखने से प्रतीत होता है कि दिगम्बर जैनाचार्यों ने रमल के समान 'पाशाकेवली' की भी दो प्रणालियाँ निकाली थीं - १. सहज पाशा और २. यौगिक पाशा । सहज पाशा प्रणाली में 'अरहन्त' शब्द के पृथक्-पृथकृ चारों वर्णों को एक चन्दन या अष्टधातु के बने पाशे पर लिखकर इष्टदेव का १०८ बार स्मरण कर अथवा 'ॐ नमः पञ्चपरमेष्ठिभ्यः' मन्त्र का १०८ बार जाप कर पवित्र मन से चार बार उक्त पाशे को डालना चाहिए। इससे जो शब्द बने उसका फल ग्रन्थ में देख लेने से प्रश्नों का फल ज्ञात हो जाएगा ।
यौगिक पाशा प्रणाली की दो विधियाँ देखने को मिलती हैं। पहली विधि है कि अष्टधातु के निर्मित पाशे पर १, २, ३ और चार अंकों को निर्मित करें । पश्चात् उपर्युक्त मन्त्र का या इष्टदेव का १०८ बार स्मरण कर पाशे को प्रथम चार बार गिराएँ, उससे जो अंक संख्या निकले उसे एक स्थान पर रख लें । द्वितीय बार पाशे को चार बार फिर गिराएँ,
३८ : केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि