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- का भाग देने पर लब्ध पलादि भुक्त या भोग्यकाल होता है-भुक्तांश को स्वोदयमान से गुणा करके ३० का भाग देने पर भुक्तकाल और भोग्यांश को स्वोदय से गुणा करके ३० का भाग देने पर भोग्यकाल होता है। इस भुक्त या भोग्यकाल को इष्टघटी, पल में घटाने से जो शेष रहे, उसमें भुक्त या भोग्य राशियों के उदयमानों को जहाँ तक घट सके, घटाना चाहिए। शेष को ३ से गुणाकर, अशुद्धोदय मान-जो राशि घटी नहीं है, उसके उदयमान के भाग देने पर जो लब्ध अंशादि आएँ, उनको क्रम से अशुद्ध राशि में जोड़ने से सायन स्पष्ट लग्न होता है। इसमें से अयनांश घटा देने पर स्पष्ट लग्न आता है।
प्रश्नाक्षरों से लग्न निकालने का नियम-प्रश्न का प्रथम अक्षर अवर्ग हो तो सिंह लगन, कवर्ग हो तो मेष और वृश्चिक लग्न, चवर्ग हो तो तुला और वृष लग्न, टवर्ग हो तो मिथुन और कन्यालग्न, तवर्ग हो तो धनु और मीन लग्न, पवर्ग हो तो कुम्भ और मकर लग्न एवं यवर्ग अथवा शवर्ग हो तो कर्क लग्न जानना चाहिए। जहाँ एक-एक वर्ग में दो-दो लग्न कह गये हैं, वहाँ विषम प्रश्नाक्षरों के होने पर विषम लग्न और सम प्रश्नाक्षरों के होने पर सम लग्न जानना चाहिए। इस लग्न पर-से ग्रहों के अनुसार फल बतलाना चाहिए।
तीसरा स्वरविज्ञान सम्बन्धी सिद्धान्त अदृष्ट पर आश्रित है। अर्थात् पृच्छक के अदृष्ट का प्रभाव सभी वस्तुओं पर पड़ता है। बल्कि यहाँ तक कि उसके अदृष्ट के प्रभाव से वायु में भी विचित्र प्रकार का प्रकम्पन उत्पन्न होता है, जिससे वायु चन्द्रस्वर और सूर्यस्वर के रूप में परिवर्तित हो पृच्छक के इष्टानिष्ट फल को प्रकट करती है। कुछ लोगों का अभिमत है कि वायु का ही प्रभाव प्रकृति के अनुसार भिन्न-भिन्न मानवों पर भिन्न-भिन्न प्रकार का पड़ता है। स्वरविज्ञान वायु के द्वारा घटित होनेवाले प्रभाव को व्यक्त करता है। सामान्य स्वरविज्ञान निम्न प्रकार है
मानव-हृदय में अष्टदलकमल होता है। उस कमल के आठों पत्रों पर सदैव वायु चलता रहता है। उस वायु में पृथ्वी, अप, तेज, वायु और आकाश ये पाँच तत्त्व चलते रहते हैं और इनके संचालन से सब प्रकार का शुभाशुभ फल होता है। किन्तु विचारणीय बात यह है कि इनके संचालन का ज्ञान करना ऋषि, मुनियों को ही सम्भव है। साधारण मानव जिसे स्वराभ्यास नहीं है, वह दो चार दिन में इसका ज्ञान नहीं कर सकता है। आजकल स्वरविज्ञान के जाननेवालों का प्रायः अभाव है। केवल चन्द्रस्वर और सूर्यस्वर के स्थूल ज्ञान से प्रश्नों का उत्तर देना अनुचित है। स्थूल ज्ञान करने का नियम यह है कि नाक के दक्षिण या वाम किसी भी छिद्र से निकलता हुआ वायु (श्वास) यदि छिद्र के बीच से निकलता हो तो पृथ्वी तत्त्व; छिद्र के अधोभाग से अर्थात् नीचे वाले ओष्ठ को स्पर्श करता हुआ निकलता हो तो जलतत्व; छिद्र के ऊर्ध्व भाग को स्पर्श करता हुआ निकलता हो तो अग्नितत्व; छिद्र से तिरछा होकर निकलता हो तो वायुतत्व और एक छिद्र से बढ़कर क्रम से दूसरे छिद्र से निकलता
१. 'अवर्गे सिंहलग्नं च पवर्ग मेषवृश्चिकौ। चवर्गे यूकवृषभौ टवर्गे युग्मकन्यके॥ तवर्गे धनुमीनौ च पवर्गे कुम्भनक्रकौ। यशवर्गे कर्कटश्च लग्नं शब्दाक्षरैर्वदेत्॥"
-के. प्र. सं., पृ. ५४।
केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि : ६७