Book Title: Karn Kutuhal
Author(s): Bholanath Jain
Publisher: Rajasthan Puratattvanveshan Mandir

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Page 8
________________ प्रकाशकीय वक्तव्य राजस्थान एवं गुजरात, मालवा आदि प्रदेशों में प्राचीन हस्तलिखित प्रन्थों के बिखरे हुए एवं जीर्ण-शीर्ण दशा में जो संग्रह प्राप्त होते हैं उनमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं प्राचीन राजस्थानी-गुजराती भाषा में रचित छोटीबड़ी ऐसी सैकड़ों ही साहित्यिक कृतियां उपलब्ध होती हैं जो अभी तक प्रायः अज्ञात और अप्रकाशित हैं । विद्वानों का लक्ष्य प्रायः अभी तक उन्हीं सुप्रसिद्ध और सुज्ञात ग्रन्थों के अन्वेषण एवं संशोधन की तरफ रहा है जो यत्र तत्र यथेष्ट मात्रा में उपलब्ध होते हैं । ग्रन्थों के सम्पादन और प्रकाशन के विषय में भी प्रायः यही प्रथा चली आ रही है। सुप्रसिद्ध और सुज्ञात ग्रन्थों के सिवाय छोटी और प्रकीर्ण रचनाओं के विषय में विद्वानों का विशेष लक्ष्य नहीं जाता है और इसीलिये अभी तक ऐसी रचनाओं के सम्पादन और प्रकाशन का मुख्य प्रयत्न प्रायः नहीं सा हुआ है । हमारे प्राचीन इतिहास एवं सांस्कृतिक सामग्री की दृष्टि से इन फुटकर रचनाओं में जो ज्ञातव्य छिपे पड़े हैं उनकी तरफ हमारा ध्यान बिल्कुल नहीं गया है, ऐसा कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। ___ राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर का कार्य प्रारम्भ करते समय हमारा लक्ष्य इस प्रकार के प्रकीर्ण साहित्य का अन्वेषण, संग्रह, संरक्षण, संशोधन, सम्पादन एवं प्रकाशन आदि करने का रहा है और तदनुसार राजस्थान पुरातन प्रन्थमाला द्वारा ऐसी अनेकानेक साहित्यिक रचनाओं को सुयोग्य विद्वानों द्वारा शोधित और सम्पादित करा कर प्रकाश में लाने का आयोजन हमने किया है। संस्कृत साहित्य में नाटकों का विशेष महत्त्व है । श्रव्य काव्य परम्परा में विद्वानों ने नाटकों के अनेक भेदों का वर्णन किया है। मध्यकाल में राजाओं और उनके सभासदों के प्रीत्यर्थ भी नाटक लिखे गये हैं जिनमें बहुत से अज्ञात और अप्रसिद्ध हैं । “कर्णकुतूहल" ऐसा ही एक लघु-नाटक है जो महाकवि भोलानाथ द्वारा जयपुर के महाराजा प्रतापसिंहजी के गुरु और प्रमुख परामर्शदाता महाराजा श्री सदाशिव के प्रीत्यर्थ निर्मित है । यद्यपि इसका प्रारम्भ प्राचीन शास्त्रीय ढङ्ग से ही होता है किन्तु आगे एक आख्यायिका में पर्यवसान हो जाने से इसमें नाट्यशास्त्र के पूरे लक्षणों का निर्वाह नहीं हुआ है फिर भी एक

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