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के लिये प्रिय से प्रिय वस्तु का विसर्ग करने में कष्टानुभव नहीं करती थी। किन्तु, बलि के लिये उद्यत होते ही शिवायोगिनी ने प्रकट होकर गुणवती को रोक लिया और कहा कि 'तुम्हारी पतिसेवा और स्वामि-भक्ति श्लाघनीय है, तुम सानन्द रहो और राजा भी चिरायुष्य प्राप्त करे।' इतना कह कर शिवायोगिनी अन्तहित हो गई और कुमार राजा की सेवा में पुनः यथापूर्व अवस्थित हो गया। इधर राजा भी सारा वृत्त अपनी आंखों से देख आश्चर्य चकित हो कुमार से पहले ही गुप्त मार्ग द्वारा श्राकर शय्या पर पहले की भांति लेट गया।
प्रातःकाल होने पर राजा ने बृहती सभा की, और रानी के परामर्शानुसार ऐसे अनुपम उपकार के बदले में अपनी कन्या का विवाह कुल-पुरोहित द्वारा कुमार के साथ कराने का निश्चय एवं रात्रि में कुमार का आश्चर्यजनक कर्म सभी सभासदों को कह सुनाया कुमार ने गुणवती की मन्त्रणा के अनन्तर राजा का प्रस्ताव स्वीकार किया और लक्षमुद्रारत्नाल वार तथा दस हाथियों के साथ राजकन्या का प्रीति-पूर्वक वरण किया।
इस प्रकार बहुत समय होने पर कुमार राजा से विदा मांगकर पुरस्कृत होता हुआ कर्णपत्तन में वापस पहुँचा और दोनों पत्नियों सहित उसने पिता के चरणकमलों में सादर नमन किया। इस प्रकार की आख्यायिका के उपबृहण के साथ तीसरे कुतूहल की कवि ने परिसमाप्ति की है।
नाटक में वर्णित कथानक कवि की कोई मौलिक सूझ नहीं कही जा सकती क्योंकि ऐसे ही कथानक क्रमशः भोज और बल्लालसेन के बारे में भी कुछ हेर फेर के साथ प्रसिद्ध हैं। राजस्थानी में जगदेव परमार की कथा सिद्धराज जयसिंह के दरबार में ऐसे ही पराक्रम को लेकर सुप्रचलित है। तथापि नवीन कल्पना का पुट देकर उसे कवि ने यथामति सुरञ्जित करने का प्रयास किया है और इस प्रयास में उसे नितान्त असफल नहीं कहा जा सकता।
आहवकीर्ति का प्रस्थान वर्णन एवं राजप्रासादगमनवर्णन तथा सम्भोग-शृंगार एवं-नख-शिख वर्णन नाटक के रमणीय स्थल हैं। चन्द्रमा के सम्बन्ध में कवि की कल्पना नितान्त रमणीय एवं चमत्कारपूर्ण है ।
महाकवि भोलानाथ ने 'कर्ण कुतूहल प्रभृति अनेक हिन्दी एवं संस्कृत में काव्यों का प्रणयन किया है। ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे और संस्कृत एवं हिन्दी के अपने समय के अच्छे कवि थे। इनके पिता श्री नन्दराम शुक्ल भी संस्कृत के अच्छे प्रौढ़ विद्वान थे। ये देवकुलीपुर नामक स्थान के निवासी थे जो अन्तर्वेद (गङ्गा यमुना का मध्य भाग) में स्थित है। इनके पूर्वज 'राम' नामक अच्छे प्रतापी योद्धा थे। उन्होंने एक बार किसी शरणागत वीर की सुरक्षा की थी अतः तत्कालीन मुगल सम्राट ने उन्हें 'टाकुर' की उपाधि प्रदान की थी। इन श्रीराम ठाकुर की सन्तति परम्परा में श्री दुर्गालाल शुक्ल अच्छे पौराणिक पण्डित हुए, जो इनके पितामह थे । इनके पितामह भूपति शुक्ल अच्छे गुणवान् एवं नीति निपुण थे, वे देवकलीपुर से श्राफर आगरे में रहने लगे और आगरे के किसी नवाब से उनका