Book Title: Karn Kutuhal
Author(s): Bholanath Jain
Publisher: Rajasthan Puratattvanveshan Mandir

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Page 22
________________ "भट्टजी सू म्हांको नमस्कार । अपरं च विद्यागुरुपणां की पदवी म्हे थांने दीन्ही छै सो जो म्हांका बेटा पोता होसी सो थांका बेटा पोतां आगे भणसी अर विद्यागुरुपणा की पदवी थांका वेटा पोतां ने देसी ई बात का श्री जी सायदी१ छः मि० चैत्र कृष्णा सं०१८१४।" भट्ट सदाशिवजी के पौत्र भट्टराजा अम्बादत्तजी के बारे में लिखे गये वर्णन से विदित होता है कि उनका जयपर महाराजा किस प्रकार समादर किया करते थे। वणेन इस प्रकार है “॥ श्रीरामजी॥ दस्तूर विद्यागुरु भटजी श्री अम्बादत्त जी को __ भट्ट राजाजी बारनै देस परदेश जाय तदि श्री हजूर सिख देवार पधारें, म्होर एक तोला नारेल एक भेट करै । श्री हरि मसन्द पर विराजै अर भट्टराजाजी मसन्द की तरफ जीवणी गद्दी २ पर बैठे । फेर भट्टराजाजी की आयां की खबर मालुम होय जिद श्री हरि कोस आध ताई पेसवाई३ पधारे पाछे भट्टराजाजी ने सवार कराय स्वारी४ के अगाड़ी चलावै, श्री हरि पाछे पाछे चालै पाछै भटजी ने तो डेरा सीख दे अर स्वारी महलां दाखिल होय। फेर भट्टजी के डेरे श्री हरि मिलबा पधारे एक तोला मोहर एक नारेल ऊही तरै५ श्री हरि मसन्द पर विराज भट्टराजा जी गद्दी पर बैठे घड़ी दोय घड़ी बातां करता रहे फेर श्री हजूरि महलां पधार भदराजा जी का बेटा ने श्री हरि सूजुवराजपणो बकस्यो अर आसणोट बकस्यो श्री हरि सूमिले जद भट्टराजा जी तो गद्दी दोय पर ही बैठे अर जुगराजजी श्रामणोट परि बैठे।" इसके अतिरिक्त भट्टराजाजी अम्बादत्त जी ने जयपुर के महाराजा सवाई रामसिंह जी द्वितीय को आश्विन शुक्ला ५ सं० १६२५ विक्रमीय को पत्र लिखा था उससे उपयुक्त घटना की सम्पुष्टि होती है- पत्र की प्रतिलिपि इस प्रकार है " ॥ श्री राज राजेश्वरो जयति ॥ माधवसिंहजी हजूर सदाशिवजी म्हांको नमस्कार बंचज्यो, अपंच रुक्को ई मजमून सूआयो कि श्री... यो हुकम फुरमाये छै सो श्रापका बड़ा कांई बात सू ईतनी ईजत पाई और अब कांई १. साक्षी २. पहुँचाने के लिए। ३. अगवानी। ४. जलूस। ५. तरह ।

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