Book Title: Karn Kutuhal
Author(s): Bholanath Jain
Publisher: Rajasthan Puratattvanveshan Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 32
________________ ( २० मनीराम द्वारा तथा दीवान हाफिज का पद्यानुवाद भी इन्हीं के समय में हुआ था । इसके अतिरिक्त विश्वेश्वर महाशब्देकृत धर्मशास्त्र का महाग्रन्थ 'प्रतापार्क', प्रताप - सागर' ( आयुर्वेद ) 'प्रताप मार्तण्ड' (ज्योतिष), राय अमृतराम पल्लीवाल कृत अमृतप्रकाश ( मुद्रित ) प्रभृति अनेक ग्रन्थ तो इन्होंने अपनी प्रेरणा से लिखाये ही थे तथा 'प्रताप वीर हजारा।' 'प्रताप शृंगार हजारा' जैसे पद्यों के संग्रह कराने में भी इनका बड़ा अनु राग रहता था। इस सबसे इनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा एवं विद्वत्समादरवृत्ति का उचत परिचय मिलता है । स्थापत्यकला के भी ये अच्छे प्रेमी थे अपने समय में इन्होंने चन्द्र महज़ का विस्तार, ऋद्धिसिद्धि पोलि, दीवान बाता ( बड़ा ), श्री गोविन्ददेवजी के पीछे का श्री गोवद्धननाथजी का मन्दिर, व्रजनिधिजी का मन्दिर आदि बहुत सी इमार बनवाई | हवामहल के बारे में लिखा है कि :-- हौज, महल, हवा महल या तैं कियो, सब समझो यह भाव । राधे कृष्ण पधारसी, दरस परस को छात्र || ( वजनांध ग्रन्थावली ) अन्त में अधिक चिन्तत रहने के कारण रक्त विकार और अतिसार से श्रावण शुक्ला १३ सं० १८६० में ४६ वर्ष की आयु में ही ये स्वर्ग सिधार गये 1 अपने समय के एक विशिष्ट, प्रतिभासम्पन्न, मनस्वी राजा थे राजकार्य में उमे रहने पर भी स्वयं इतने ग्रन्थों का प्रणयन करना, युद्धों में भाग लेना तथा इतने ग्रन्थों का निर्माण कराना कोई साधारण कार्य नहीं है । ये सुकत्रि महाराजा साहित्यकार के रूप में हिन्दी भारती के भव्य भवन में श्रद्धामय पद्य पुष्प समर्पित करने क कारण साहित्याकाश में एक जाज्वल्यमान नक्षत्र की भांति अग्नी प्रतिभा प्रभा से चिरकाल तक प्रकाशमान रहेंगे । कृतज्ञताज्ञापन जैसा कि ऊपर निवेदन किया गया है 'कर्णकुतूहल' और 'श्री कृष्णलीलामृतम्' की एक मात्र प्रतिकत्रि के वंशज श्री मनोहरलाऩजो के पास ही उपलब्न हुई और उन्हीं के आधार पर प्रतिलिपि करके इनका मुद्रा कराया गया है। प्रति में जहां कहीं अशुद्धिया लिपिकर्ताको भूत से अतरच्युति आदि रह गई थी उन्हें यथाशक्य ठीक करने का प्रयत्न किया गया है और पदटिप्पति में संकेत कर दिया गया है। अन्त में, एक बार फिर श्री मनोहरलालजी को प्रतियां देने के लिए धन्यवाद देता हूँ और मुनि श्री जिनविजयाजी महाराज के प्रति कृतज्ञनाज्ञापन अपना कर्तव्य मानता हूँ जिनके मार्गदर्शन में इन कृतियों का सम्पादन कार्य हुआ है और जिन्होंने इस अकिंचन प्रयास को कृशपूर्वक प्रकाशित करने की आज्ञा प्रदान की है । राजस्थान पुरातत्वान्वेषण मन्दिर; जयपुर:८-२-५७ गोपालनारायण

Loading...

Page Navigation
1 ... 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61