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इसी प्रकार महाकवि भोलानाथ ने अपनी विदग्ध रसमाधुरी से सहृदयों का अन्तःकरण समाकृष्ट करते हुए महाराजा प्रतापसिंह जी के गुणों का बड़े ही सुमधुर शब्दों में वर्णन किया है। इनकी रसिकता एवं अग सौन्दर्य को लक्ष्य करके किसी अज्ञात कवि का यह मनारम सवैया भी यहां अङ्कित करना पाटकों को आनन्दप्रद होगा
"अग्र गुलाब कली लटके सिर, छैल छबीले लपेटहि लेखौं । घूमत बागे सुपीत पटा कटि, सौनजुही सुषमा अवरेखौं । मांझ म जगदीस सिगार में प्रीतिनिवास के प्रांगन पेखौं।
सांवरिया प्रभु याद करौं जब भूप प्रताप की सूरति देखौं । ऐतिहासिक तूंगा समर के विषय में भी पद्माकर वा निम्नलिखित पद्य पठनीय है; इससे उस समर की भयंकरता और प्रतापसिहजी की वीरता का पूरा पता चलता है।
"जार गयो जद्दन विकद्दन बिडारि गयौ, . डारि गया डऔर सब सिक्खन के सर को । कहै 'पदमाकर' मोर गांववासिनकौं,
तारि गयो तोरा तुरकानहू के तर को।। भूपति 'प्रताप' जंग 'जालिम' सो रारि करि,
हार गया सैंधिया भयो न घाट घर को ।। जधर पैठ लग्यो जम हूँ के पास तऊ
तनत न त्रास गयो 'तूंगा के समर को ॥" इसी प्रकार मराठों से युद्ध करते समय इन्होंने जो अपूर्व पराक्रम प्रदशित किया था उसका एक अज्ञात कविकृत कवित्त में रौद्र वर्णन देखिये
"घोर घमासान महाप्रले के निसाँन,
आसमान लौ लहर पचरंग के फहर की। अंग ऊ बंग संग सुभट लपेटे लोह,
अघट उमंग छोइ छाक के छहर की। सम्भु श्री प्रताप तो प्रताप भर झाफ आफ
ताफलौं तराफ तेज ताप के थहर की। सहर सहर दावा दारन अहर पर ।
___ कहर कर जन में झांख सी जहर की। ये योद्धा एवं प्रतापी होने के साथ साथ बहुज्ञ, अपरिमित मेघासम्पन्न, भावुक, एवं हृदय भक्तकवि भी थे। इनके द्वारा रचित २३ ग्रन्थों का संग्रह 'वज्ञनिधि ग्रन्थावली के रूप में नागरीप्रचारिणी सा काशी द्वारा प्रकाशित हो चुका है जिसमें इनके द्वारा प्रणीत न्थों का विवरण इस प्रकार है :
१. प्रेम प्रकाश सं० १८४८ फा० बु० ६ गुरुवार २. फागरंग
" सु०७ बुधवार ३. प्रीतिलता
चै० क. १३ मंगलबार