Book Title: Karn Kutuhal
Author(s): Bholanath Jain
Publisher: Rajasthan Puratattvanveshan Mandir

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Page 12
________________ सैकड़ों ही ऐसे हैं जिनके नाम तक मी अभी तक विद्वानोंको ज्ञात नहीं हैं । यह सब कोई जानते हैं कि इन ग्रन्थोंमें हमारे राष्ट्र के प्राचीन सांस्कृतिक इतिहासकी विपुल साधन-सामग्री छिपी पड़ी है । हमारे पूर्वज हजारों वर्षों तक जो हानार्जन करते रहे उसका निष्कर्ष और नवनीत निकाल निकाल कर, वे अपनी भावी सन्ततिके उपयोगके लिये इन ग्रन्थात्मक कृतियोंमें सश्चित करते गये । व्याकरण, कोष, काव्य, नाटक, अलङ्कार, छन्द, ज्योतिष, वैद्यक, कामविज्ञान, अर्थशास्त्र, शिल्पकला श्रादि लौकिक विद्यानोंके झानके साथ श्रुति, स्मृति, पुराण, धर्मसूत्र, न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, जैन, बौद्ध, शाक्त, तन्त्र, मन्त्र, प्रादि धार्मिक, दार्शनिक एवं प्राध्यास्मिक विधाओंके रहस्य भी इन ग्रन्थोंमें नाना स्वरूपों में प्रथित किये हुये हैं। इसी प्रकार, युग युगमें होने वाले अनेक शूरवीर, दानी-ज्ञानी, सन्त-महन्त, त्यागी-वैरागी, मक्त-विरक्त, प्रादि गुण विशिष्ट नर-नारी जनोंके जीवन और कार्योंके विविध वर्णन-चित्रण मी इन्हीं ग्रन्थोंमें अन्तर्निहित हैं। अर्थात् हमारे राष्ट्रकी सर्व प्रकारकी गौरव-गरिमाविषयक कथा-गाथाकी रक्षा करने वाला हमारा यही एकमात्र प्राचीन साहित्यसंग्रह है । इसीके प्रकाशसे संसारमें भारतका गुरुपद सात हुश्रा और स्थापित हुत्रा है। यद्यपि अाज तक इनमें से हजारों ही प्राचीन ग्रन्थ, प्रकाशमें श्रा चुके हैं, फिर भी हजारों ही ऐसे ग्रन्थ और बाकी हैं जो अन्धकार के तलघरमें दबे पड़े हैं। इनका उद्धार करना और इन्हें प्रकाशमें रखना, यह अब इस नूतन जीवन प्राप्त नव्य भारत के प्रत्येक व्यक्ति और संस्थाका परम कर्तव्य है। इसी कर्तव्यको लक्ष्य कर, इस संस्था द्वारा ‘राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला' के प्रकाशनका प्रायोजन भी किया गया है । इसके द्वारा संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देश्य भाषाओंमें निबद्ध विविध विषयों के प्राचीन ग्रन्थ, तज्ज्ञ एवं सुयोग्य विद्वानों से संशोधित और सम्पादित हो कर प्रकाशित किये जा रहे हैं। अब तक कोई छोटे बड़े २५ ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं और प्रायः २० से अधिक ग्रन्थ प्रेसों में छप रहे हैं। राजस्थान सरकार वर्तमान में, इस कार्य के लिये प्रतिषर्ष २०:०० रुपये खर्च कर रही है--पर हमारी कामना है कि भविष्यमें यह रकम वढ़ाई जाय और तदनुसार अधिक संख्यामें इन प्राचीन ग्रन्थोंका समुद्धार और प्रकाशन-कार्य किया जाय । साहित्यका प्रकाश ही प्रजाके अज्ञानान्धकारको नष्ट कर उसे दिव्यताका दर्शन कराता है। माघ शुक्ला १४, वि० सं० २०१३. । .. (जीवनके ७० वें वर्षका प्रथम दिन) । मुनि जि न वि जय

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