________________
आत्मा मूलभूत शुद्ध स्वरूप है। आत्मा के स्व-स्वरूप को पहचान इस अनन्त चारित्र गुण से होती है । यथाख्यात का अर्थ है कि-यथा = अर्थात् जैसा, ख्यात = अर्थात् कहा गया हैं। जैसा सर्वज्ञ-केवलज्ञानी भगवान ने आत्मा का शुद्ध स्वरूप कहा है, उसी शुद्ध स्वरूप में रहना यथाख्यात चारित्रगुण कहलाता है । जैसा मोक्ष में आत्मा का सर्व कर्मरहित शुद्ध स्वरूप होता है, वैसा सभी आत्माओं का मूलभूत स्वरूप है, परन्तु संसारी जीव राग-द्वेषादि की प्रवृत्ति में फंसकर अपनी स्वभाव रमणता एवं स्वगुण रमणता को भूल जाता है, और अपने शुद्ध स्वरूप को विकृत कर देता है । इन राग, द्वेष विषय-कषायादि भावों से आत्मा कर्म के भार से भारी होती जाती है आत्मा के इस अनन्तचारित्रगुण को ढकने वाले मोहनीय कर्म के कारण आत्मा स्व-स्वभाव भूल जाती है, और विभावदशा में गिर जाती है। अपने ज्ञानादिक गुणों को भूलकर आत्मा अज्ञानादि में प्रवृत्ति करने लगती है। निजानन्द-सच्चिदानन्द्र स्वरूप को भूलकर आत्मा पुद्गलानन्दी बनती है। क्षमा, समता, नम्रता आदि गुणों को भूलकर आत्मा क्रोधादि कषाय वाली बन जाती है । इस तरह यथाख्यात चारित्र स्वरूप या स्वगुण रमणता स्वस्वरूप रमणता स्व-स्वस्वभाव रमणता आदि जो आत्मा के मूलभूत गुण थे, वे मोहनीय कर्म से ग्रस्त होकर-दबकर विकृत हो जाते हैं।
मोहनीय कर्म
संसारी जीव की राग-द्वेष, विषय-कषाय, अदि की प्रवृत्ति से उत्पन्न यह मोहनीय कर्म आत्मा को स्वेत्तर-आत्मेत्तर अर्थात् आत्मा से भिन्न अतिरिक्त जो पर पदार्थ हैं, उनमें मोहित करे वह मोहनीय कर्म कहलाता है। संस्कृत के “मुह" धातु से मोह शब्द बना है । "मुह्यति जन्तवः अनेन इति मोहः ।" जिससे जीव मोहित होता है उसे मोहनीय कर्म कहते हैं । जबकि आत्मा का मूलभूत स्वभाव पर पदार्थ में मोहित होने का नहीं है। स्वभाव रमणता और स्वगुण रमणता के मूलभूत गुण से आत्मा स्वस्वरूप में, स्वगुणों में ही मस्त-लीन रहनी चाहिए। निज में ही आनन्द मानना निजानन्द स्वरूप है, परन्तु यह सब मोहनीय कर्म के प्रबल आघात से छूट जाता है और आत्मा पर पुदगल पदार्थों में आनन्द मानने लग जाती है। इस तरह निजानंदी आत्मा मोहनीय कर्म के कारण पुद्गत्वानन्दी बन जाती है । कदम-कदम पर मोह ग्रस्त आत्मा अपने आपको भूलकर अन्य पदार्थों में ही मोहित होती जाती
कर्म की गति न्यारी