Book Title: Kappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman,
Publisher: Shubhabhilasha Trust
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करता वह विराधक है। प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या करते हुए भाष्यकार ने निम्न विषयों का स्पष्टीकरण किया है—व्यवशमित के एकार्थक शब्द—क्षामित, व्यवशमित, विनाशित और क्षपित; प्राभृत शब्द
के पर्याय प्राभृत, प्रहेणक और प्रणयन; अधिकरण पद के निक्षेप; द्रव्याधिकरण के निर्वर्तना, निक्षेपणा, संयोजना और निसर्जना– ये चार भेद, भावाधिकरण कषाय द्वारा जीव किस प्रकार विभिन्न गतियों में जाते है; निश्चय और व्यवहारनय की अपेक्षा से द्रव्य का गुरुत्व, लघुत्व, गुरुलघुत्व
और अगुरुलघुत्व; जीवों द्वारा कर्म-ग्रहण और तज्जन्य विविध गतियाँ; उदीर्ण और अनुदीर्ण कर्म; भावाधिकरण उत्पन्न होने के छ: प्रकार के कारण सचित्त, अचित्त, मिश्र, वचोगत, परिहार और देशकथा, निग्रंथ-निग्रंथियों में परस्पर अधिकरण-क्लेश होता हो उस समय उपेक्षा, उपहास आदि करने वाले के लिए प्रायश्चित्त, निग्रंथ-निग्रंथियों के पारस्परिक क्लेश की उपेक्षा करने वाले आचार्य आदि को लगने वाले दोष और तत्संबंधी जलचर और हस्तियूथ का दृष्टांत, साधु-साध्वियों के आपसी झगडे को निपटाने की विधि, आचार्य आदि के उपदेश से कलहकारियों में से एक तो शांत हो जाए किंतु दूसरा शांत न हो उस समय क्या करना चाहिए इस ओर संकेत, 'पर' का नाम स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, आदेश, क्रम, बहु, प्रधान और भाव निक्षेपों से विवेचन, अधिकरण क्लेश के लिए अपवाद। चारप्रकृतसूत्रः
प्रथम चारसूत्र का व्याख्यान करते हुए यह कहा गया है कि श्रमण-श्रमणियों को वर्षाऋतु में एक गांव से दूसरे गांव नहीं जाना चाहिए। वर्षावास दो प्रकार का होता है—प्रावृट् और वर्षा। इनमें विहार करने से तथा वर्षाऋतु पूर्ण हो जाने पर विहार न करने से लगने वाले दोषों का प्रायश्चित्त करना पडता है। आपवादिक कारणों से वर्षाऋतु में विहार करने का प्रसंग उपस्थित होने पर विशेष यतनाओं के सेवन का विधान है।
निग्रंथ-निग्रंथियों को हेमंत और गीष्मऋतु के आठ महीनों में विहार करना चाहिए। इन महीनों में विहार करने से अनेक लाभ होते हैं तथा न करने से अनेक दोष लगते हैं। विहार करते हुए मार्ग में आने वाले मासकल्प के योग्य ग्राम-नगरादि क्षेत्रों को चैत्यवंदनादि के निमित्त छोड कर चले जाने से अनेक दोष लगते हैं। हाँ, किन्हीं आपवादिक कारणों से वैसा करना पडे तो उसमें कोई दोष नहीं है। वैराज्यप्रकृतसूत्रः
इस सूत्र व्याख्या में यह बताया गया है कि निग्रंथ-निग्रंथियों को वैराज्य अर्थात् विरुद्धराज्य में
१.गा.२६७६-२७३१। २.गा.२७३२-२७४७। ३..गा.२७४८-२७५८
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