Book Title: Jiravala Parshwanath Tirth Ka Itihas
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

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Page 11
________________ जगजयवंत जीरावला स्पष्ट होता है कि जैन परम्परा में तीर्थ शब्द केवल तट अथवा पवित्र या पूज्य स्थल के अर्थ में प्रयुक्त न होकर एक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। तीर्थ से जैनों का तात्पर्य मात्र किसी पवित्र स्थल तक ही सीमित नहीं है। वे तो समग्र धर्ममार्ग और धर्म साधकों के समूह को ही तीर्थ-रूप में व्याख्यायित करते हैं। तीर्थ का आध्यात्मिक अर्थ : जैन धर्म ने तीर्थ के लौकिक और व्युत्पत्तिपरक अर्थ से ऊपर उठकर उसे आध्यात्मिक अर्थ प्रदान किया है। विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है कि सरिता आदि द्रव्य तीर्थ तो मात्र बाह्यमल अर्थात् शरीर की शुद्धि करते हैं, अथवा वे केवल नदी, समुद्र आदि के पार पहुँचाते हैं, अतः वे वास्तविक तीर्थ नहीं है। वास्तविक तीर्थ तो वह है जो जीव को संसार-समुद्र से उस पार मोक्षरूपी तट पर पहुँचाता है।' विशेषावश्यक - भाष्य में न केवल लौकिक तीर्थस्थलों (द्रव्यतीर्थ) की अपेक्षा आध्यात्मिक तीर्थ (भावतीर्थ) का महत्त्व बताया गया है, अपितु नदियों के जल में स्नान और उसका पान अथवा उनमें अवगाहन मात्र से संसार से मुक्ति मान लेने की धारणा का खण्डन भी किया गया है। भाष्यकार कहते है कि ‘दाह की शान्ति, तृषा का नाश इत्यादि कारणों से गंगा आदि के जल को शरीर के लिए उपकारी होने से तीर्थ मानते हो तो अन्य खाद्य, पेय एवं शरीर शुद्धि करने वाले द्रव्य इत्यादि भी शरीर के उपकारी होने के कारण तीर्थ माने जायेंगे किन्तु इन्हें कोई भी तीर्थरूप में स्वीकार नहीं करता है ।" वास्तव में तो तीर्थ वह है जो हमारे आत्मा के क्रोध रूपी दाह, लोभ रूपी तृषा और कर्म रूपी मल को निश्चय से कायम के लिए दूर करके हमें संसार सागर से पार कराता है। जैन परम्परा की तीर्थ 1. देहाइतारयं जं बज्झमलावणयणाइमेत्तं च। गंताणच्वंतियफलं च तो दव्वतित्थं तं ।। इह तारणाइफलयंति ण्हाण-पाणा - ऽवगाहणईहिं । भवतारयंति केई तं नो जीवोवघायाओ ।। 2. देहोवगारि वा देण तित्थमिह दाहनासणाईहिं । महु - मज्ज - मंस - वेस्सादओ वि तो तित्तमावन्नं ।। जं नाण- दंसण-चरितभावओ तव्विवक्खभावाओ । भव भावओ य तारेइ तेणं तं भावओ तित्थं ।। तह कोह-लोह-कम्ममयदाह-तण्हा-मलावणयणा । एग णच्वंतं च कुणइ य सुद्धिं भवोघाओ ।। 9 विशेषावश्यक भाष्य - 1028-1029 विशेषावश्यकभाष्य - 1031 विशेषावश्यकभाष्य - 1033-1036

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