Book Title: Jiravala Parshwanath Tirth Ka Itihas
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

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Page 44
________________ जगजयवंत जीवावला तपागच्छ नायक, हेमविमलसूरि के शिष्य श्रुतमाणिक्य ने अपने प्रभात प्रभु वन्दन में जीरावला पार्श्वनाथ का सर्व प्रथम उल्लेख किया है - 'जीराउलिपुरी पास नमंता निश्चई भवियणह पूरई मननी आस, प्रहि उठी प्रभुप्रणमीई।' वि. सं. 638 में रचित प्रतिष्ठाकल्प के प्रारंभ में जीरापल्ली भूषण भगवान की वन्दना की गई है 'श्री पार्श्वेसो विभाशाली लक्ष्मीराज्य जय, जगद्गुरुर्जयत्येकः जीरापल्लि विभूषणम्।' वि. सं. 1752 में पंडित रत्न कुशल विरचित 'पार्श्वनाथ संख्या स्तवन' में जीरावला की महिमा का वर्णन किया है - 'श्री जीराउली नवखंड पास वखाणीई रे, नामई लील बिलास, संकट विकट उपद्रव सवि दूरिईटलई रे, मंगल कमला वास।" इसी प्रकार सं. 1667 में मुनि शान्तिकुशल विरचित गोड़ी पार्श्वनाथ स्तवन में जीरावला का उल्लेख किया है। ___ तपागच्छ के कवि हेमविजयगणिजी की अधूरी ‘विजय प्रशस्ति' के अन्तिम 5 सर्ग पूर्ण करने वाले गुण-विजयगणि ने इस काव्य की दस हजार श्लोक प्रमाण टीका ईडरगढ़ में शुरु की एवं सं. 1688 में सिरोही के जीरावला पार्श्वनाथ की मूर्ति के समक्ष पूरी की। “सिरोही चैत्य परिपाटी' स्तवन में पं. कांतिविजयजी ने इस प्रकार जीरावला पार्श्वनाथ के महिमा मण्डित स्वरूप का वर्णन किया है - पास-आस पूरे भविजनकी जीरावली जगमाहिं। वि. सं. 1721 में पं. मेघविजयजी अपनी पार्श्वनाथ नाम माला में जीरावला का बड़े आदर पूर्वक नाम लिया है एवं शीलविजयजी की तीर्थमाला में तो स्पष्ट कहा है कि'जीराउली दादो दीपतो तेजि त्रिभुवन रवि जीपतो।' (42)

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