Book Title: Jiravala Parshwanath Tirth Ka Itihas
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

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Page 12
________________ जगजयवंत जीवावला = की यह अध्यात्मपरक व्याख्या हमें वैदिक परम्परा में भी उपलब्ध होती है। उसमें कहा गया है - 'सत्य तीर्थ है, क्षमा और इन्द्रिय-निग्रह भी तीर्थ है। समस्त प्राणियों के प्रति दयाभाव, चित्त की सरलता, दान, सन्तोष, ब्रह्मचर्य का पालन, प्रियवचन, ज्ञान, धैर्य और पुण्य कर्म ये सभी तीर्थ हैं।' द्रव्य तीर्थ और भावतीर्थ : जैनों ने तीर्थ के जंगमतीर्थ और स्थावरतीर्थ ऐसे दो विभाग भी किये हैं, भावतीर्थ और द्रव्यतीर्थ भी कह सकते हैं। वस्तुतः नदी, सरोवर आदि तो जड़ या लौकिक द्रव्य तीर्थ हैं, जबकि सम्यग दर्शन की शुद्धि आदि में निमित्त भूत कल्याणक भूमियाँ, साधना भूमियाँ तथा विशिष्टाजिन प्रतिमाएँ वाले जिनमंदिर वगैरह लोकोत्तर द्रव्य तीर्थ है। श्रुतविहित मार्ग पर चलने वाला संघ भावतीर्थ है और वही जंगम तीर्थ है। उसमें साधुजन पार कराने वाले हैं, ज्ञानादि रत्नत्रय नौका-रूप तैरने के साधन हैं और संसार समुद्र ही पार करने की वस्तु है। जो ज्ञानदर्शन-चारित्र आदि के द्वारा अज्ञानादि सांसारिक भावों से पार पहुचाता है, वो ही भावतीर्थ हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परंपरा में आत्मशुद्धि की साधना और जिस संघ में स्थित होकर यह साधना की जा सकती है, वह संघ ही वास्तविक तीर्थ माना गया है। एवं उसमें सहायक स्थल ही स्थावर तीर्थ माने गये हैं। ___ भगवती सूत्र में तीर्थ की व्याख्या करते हुए स्पष्ट रूप से साधकों के वर्ग को भी तीर्थ कहा गया है कि चतुर्विध श्रमणसंघ ही तीर्थ है।' श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविकायें इस चतुर्विध श्रमणसंघ के चार अंग हैं। इस प्रकार यह सुनिश्चित है कि प्राचीन जैन ग्रंथों में तीर्थ शब्द को संसार समुद्र से पार कराने वाले साधक के 1. सत्यं तीर्थ क्षमा तीर्थ तीर्थमिन्द्रियनिग्रहः। सर्वभूतदयातीर्थ सर्वत्रार्जवमेव च।। दानं तीर्थ दमस्तीर्थसंतोषस्तीर्थमच्यते। ब्रह्मचर्यं परं तीर्थं तीर्थं च प्रियवादिता।। तीर्थानामपि तत्तीर्थ विशुद्धिमनसः परा। शब्दकल्पद्रुम - ‘तीर्थ', पृ626 2. भावे तित्थं संघो सुयविहियं तारओ तहिं साहू। नाणाइतियं तरणं तरियव्वं भवसमुद्दो यं।। विशेषावश्यकभाष्य-1031 1. तित्थं भंते तित्थं तित्थगरे तित्थं ? गोयमा ! अरहा ताव णियमा तित्थगरे, तित्थं पुण चाउव्वणाईणे समणसंघे। तं जहा-समणा, समणीओ, सावया सावियाओ य। भगवतीसूत्र, शतक 20, उद्दे. 8 - 10

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