Book Title: Jiravala Parshwanath Tirth Ka Itihas
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

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Page 41
________________ ___ जगजयवंत जीवावला पन्द्रहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में आचार्यमुनि सुन्दरसूरि ने 'जयश्री' शब्द से अंकित जिन स्तोत्र रत्नकोश में जीरावला पार्श्वनाथ का स्मरण किया है : 'जय श्रियं सर्वरिपून जिगीषतां, स्तुता यदाख्याऽपि तनोति मन्त्रवत्। स्तवीमितं पार्श्वजिनं शिवश्रिये, श्रीजीरिकापल्लि वतंसमिष्टदम्।।1।। लगभग इसी समय लिखे कवि भुवनसुन्दरसूरिजी के जीरावला स्तोत्र को अविकल परिशिष्ट में दिया जा चुका है। सं. 1499 में पं. मेघ ने अपनी तीर्थमाला में इस तीर्थ को इस प्रकार याद किया है - घणी वात अरवद नी भली, अम्हि जासिउ हिव जीराउली। प्रकट पास करउ अति भलऊ, सकल सामि जीराउलउ ॥59॥ सदा संघ आवई घणा, प्रत्या पूरई सविहु तणा। भाजई भीड रोग सविगमई जीराउलउ पा इणि समई ॥60॥ वि. सं. 1503 में तपगच्छीय पंडित सोमधर्मगणि ने अपनी उपदेश सप्तति में इस तीर्थ की स्थापना एवं नगरी के विषय में लिखा है - 'श्री जीरिकापल्लि-पुर-नितम्बिनी-कण्ठस्थले हारतुलांदधातियः। प्रणम्य तंपार्श्वजिनं प्रकाश्यते तत्तीर्थसम्बन्धकथा यथा श्रुतम्॥' जीरिकापल्लि पुरी रूपी सुन्दरी के कण्ठस्थ में हार रूप पार्श्वजिन को प्रणाम करके उनकी तीर्थ संबंधी कथा को मैं प्रकाशित कर रहा हूँ। ___ सं 1491 में महाराणा कुम्भकरण के मेवाड़ के देलवाड़ा मंदिर के शिलालेख में शत्रुजय व जीरावला तीर्थ को समान श्रेणी में रखा गया है। -(विजयधर्मसूरि सम्पादित देवकुल पाठक यशोविजय ग्रंथमाला पृष्ठ-33) वि.सं. 1519 में जिनप्रभसूरि के शिष्य महोपाध्याय सिद्धान्तरूचि ने जीरावला पार्श्वनाथ स्तोत्र की रचना की थी एवं वर प्राप्त किया था। यह स्तोत्र परिशिष्ट में दिया जा चुका है। 39

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